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जिनवाणी-विशेषाङ्क अपने चैतन्य स्वरूप का दर्शन करता है। देहातीत होने पर निज चैतन्य स्वरूप का दर्शन होता है । यही सम्यग्दर्शन है।
केवल जीव-अजीव या जड़-चेतन को भिन्न-भिन्न जान लेने या मान लेने से ऐसा चिंतन करते रहने से या अपने को ऐसा निर्देश देने (आत्म-सम्मोहन) मात्र से सम्यग्दर्शन होना संभव नहीं है। इन सबसे सम्यग्दर्शन के लिए प्रेरणा मिल सकती है, परन्तु सम्यग्दर्शन की उपलब्धि तो तभी संभव है जब साधक अंतर्मुखी होकर स्व संवेदन करता है तथा देहातीत बन कर जड़ देह से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप का दर्शन करता है। ___ आशय यह है कि जड़-चेतन की भिन्नता पर चिन्तन व चर्चा करके आत्म निर्देशन देकर अपने को भेद-विज्ञानी व सम्यग्दृष्टि मान लेना भूल है, अपने आपको धोखा देना है अतः अंतर्मुखी होकर स्व-संवेदन करते हुए जब तक देहातीत चिन्मय-चैतन्य अवस्था की अनुभूति न हो जाय तब तक सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिये सतत पुरुषार्थ करते रहना चाहिये। वस्तुतः दर्शन अनुभूति का विषय है ज्ञान का नहीं। फिर चाहे वह दर्शन सम्यग्दर्शन रूप हो अथवा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट दर्शन गुण रूप हो। ये दोनों ही दर्शन विकल्पात्मक ज्ञान के विषय न होकर निर्विकल्प स्व-संवेदन रूप अनुभव के विषय हैं। भेद-विज्ञान से संबंधित चिंतन व चर्चा अन्तर्मुखी बनने में सहायक होती है, परन्तु भेद-विज्ञान का अनुभव तो अंतर्मुखी होने पर निज स्वरूप के दर्शन से ही संभव है। यही अनुभव सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन : निसर्गज-अधिगमज
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा' (तत्त्वार्थसूत्र अ. १ सूत्र २-३) अर्थात् तत्त्वार्थों पर यथार्थ रूप में श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । ___ यह सम्यक् दर्शन निसर्ग से भी होता है और अधिगम से भी होता है। निसर्ग स्वभाव को कहते हैं जो स्वत: होता है। वस्तु के यथार्थ स्वभाव को निज ज्ञान से जानकर उस पर श्रद्धा करना निसर्गज सम्यक् दर्शन है और वस्तु के यथार्थ स्वभाव को अन्य किसी महापुरुष की वाणी से, उपदेश से, गुरु से, ग्रन्थ से जानकर उस पर श्रद्धा करना अधिगमज सम्यक् दर्शन है। निसर्ग या स्वभाव उसे कहते हैं जो स्वत: होता है किसी के द्वारा पैदा किया हुआ नहीं होता है। जो स्वत: होता है वह अविनाशी होता है। अत: उसका किसी भी काल, देश, अवस्था में कभी भी विनाश या अभाव नहीं होता है। समस्त संसार का संचरण या संचालन नैसर्गिक नियमों के अनुसार हो रहा है। निसर्ग के नियम कारण-कार्य पर आधारित होते हैं। निसर्ग में कोई कार्य या घटना बिना कारण के संभव नही है। कारण-कार्य पर आधारित ये नैसर्गिक नियम, अखण्ड, अपरिवर्तनीय, स्वयं सिद्ध, शाश्वत व सनातन होते हैं। नैसर्गिक नियम ही प्राकृतिक विधान, कुदरत के कानून (नेचुरल ला) कहे जाते हैं। ये ही नियम शास्त्रीयभाषा में सिद्धान्त कहे जाते हैं, क्योंकि ये स्वयंसिद्ध होते हैं, इन्हें सिद्ध करने के लिए किसी तर्क, युक्ति व प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती है। जैन धर्म में प्रतिपादित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर आदि तत्त्वों तथा कर्म-सिद्धान्त से
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