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जिनवाणी-विशेषाङ्क "उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।" "इन्द्रियफलमुपयोग:।” (सर्वार्थसिद्धि अ. २ सूत्र ९ व १८) अर्थात् जो अतरंग और बहिरंग दोनों निमित्तों से उत्पन्न होता है और चैतन्य का अनुसरण करता है, ऐसा परिणाम उपयोग है। अथवा इन्द्रिय का फल उपयोग है।
'स्व-परग्रहणपरिणाम उपयोगः'-धवलाटीका पु. २ पृ. ४११ अर्थात् स्व-पर को ग्रहण करने वाला परिणाम (भाव) उपयोग है। वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो।-पंचसंग्रह, गाथा १९८ अर्थात् वस्तु के निमित्त से जीव के भाव का प्रवृत्त होना उपयोग है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह फलित होता है कि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से या क्षय से होने वाले गुणों की प्राप्ति को लब्धि कहते हैं और उस लब्धि के निमित्त से होने वाले जीव के परिणाम या भाव का प्रवृत्तमान होना उपयोग है। परिणाम या भाव एक समय में एक ही हो सकता है। अतः एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है, दोनों उपयोग युगपत् नहीं हो सकते। परन्तु लब्धि ज्ञान-दर्शनगुण के साथ दान, लाभ, भोग आदि गुणों की भी होती है। यही नहीं किसी को अनेक ज्ञानों की उपलब्धि या लब्धि हो सकती है, परन्तु वह एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग करता है, जैसा कि कहा है-'मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत्' (तत्त्वार्थभाष्य अ. १ सूत्र ३१) अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान इन चार ज्ञानों का उपयोग एक साथ नहीं होता। किसी भी जीव को एक साथ एक से अधिक ज्ञान का उपयोग नहीं हो सकता। कारण कि ये सब ज्ञान की पर्यायें हैं और यह नियम है कि एक साथ एक से अधिक पर्यायों का उपयोग नहीं हो सकता। इसीलिए पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं, सहवर्ती नहीं। अतः चारों ज्ञानों की उपलब्धि तो एक साथ हो सकती है, परन्तु उनका उपयोग क्रमवर्ती होता है, सहवर्ती नहीं और एक ज्ञान में भी उसके अनेक भेदों में से किसी एक भेद का ही ज्ञानोपयोग हो सकता है अनेक भेदों का उपयोग एक साथ नहीं हो सकता। __ अभिप्राय यह है कि जैनागमों में ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के एक साथ होने का निषेध नहीं किया गया है। निषेध किया गया है दो उपयोग एक साथ होने का।
अतः स्वानुभव या चैतन्य के बोध अथवा आत्मसाक्षात्कार के लिए चाह, चर्चा व चिंतन रहित होना आवश्यक है, भले ही वह सत् चर्चा व सत् चिंतन ही क्यों न हो। परन्तु जब तक साधक प्रवृत्ति (क्रिया) करने के राग के उदय के कारण चर्चा व चिंतन रहित नहीं रह सकता हो तो उसके लिए आवश्यक है कि वह सत् चर्चा और सत् चिंतन करे । कारण कि यदि वह सत् चर्चा और सत् चिंतन नहीं करेगा तो राग के उदय के कारण से असत् चर्चा और असत् चिंतन उत्पन्न होगा जिससे राग की वृद्धि होगी। असत् चर्चा और असत् चिंतन सर्वथा त्याज्य हैं, तथा सत् चर्चा और सत् चिंतन आदरणीय हैं, क्योंकि सत् चर्चा और सत् चिंतन रूप ज्ञानोपयोग राग से रहित करने में सहायक है, अतः वे साधना के अंग हैं। परन्तु साधना को ही साध्य न बना लें, इसके लिए सदैव जागरूक रहने की आवश्यकता है। कारण कि साधना को
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