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________________ १५६ जिनवाणी- विशेषाङ्क गुरुदेव - सम्यक्त्व की स्थिरता तभी तक है जब तक जीव की जीवादि नव तत्त्वों पर, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर एवं आत्मभाव पर अटल आस्था रहती है 1 उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन की ३१ वीं गाथा में सम्यक्त्व के जो आठ अंग बताए हैं उन पर चिन्तन करने से सम्यक्त्व पुष्ट होता है और सम्यक्त्व के पांच दूषण से बचकर रहने से रक्षा होती है । जिसने सम्यक्त्व का वमन कर दिया उसकी संगति से दूर रहने और विशेष रूप से निरंतर स्वाध्याय, ध्यान, संत-सान्निध्य में तत्पर रहने से सम्यक्त्व पुष्ट एवं स्थिर रहता है । विशाल - गुरुदेव ! अनादि का मिथ्यात्वी क्या उसी भव में मोक्ष लाभ प्राप्त कर सकता है ? गुरुदेव - अनादि का मिथ्यात्वी उसी भव में पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान में फिर सातवें गुणस्थान में और फिर आगे क्षपक श्रेणी करता हुआ अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष जा सकता है । (इसी बीच एक स्वाध्यायी बन्धु ने उपर्युक्त कथन को पुष्ट करते हुए बात रखी कि किसी भी सम्यक्त्वधारी का भवी होना जरूरी है। साथ ही कृष्णपक्ष से शुक्लपक्षी होना जरूरी है, जिसका कालमान कुछ कम अर्ध पुद्गल - परावर्तन माना गया। वही अनादि का मिथ्यात्वी मुक्ति लाभ अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त करता है ।) गुरुदेव - आपने यह धारणा व्यक्त कर आगम अध्ययन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया जो कि प्रत्येक जिज्ञासु के लिए अनुकरणीय है । मनीष - भन्ते ! जब भव्यत्व - अभव्यत्व का निर्णय ही नहीं तो फिर सम्यक्त्व - प्राप्ति के उपाय का प्रयास निष्फल तो नहीं होगा ? गुरुदेव - यद्यपि भव्यत्व - अभव्यत्व का निर्णय केवलीगम्य है तथापि प्राचीन आचार्यों की यह मान्यता रही कि जिसके अन्तर्मन में यह जिज्ञासा होती है कि 'मैं भवी हूँ या अभवी' इस प्रकार की जिज्ञासा ही भव्यत्व की पहचान है अर्थात् भवी के मन में ही ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होती है । तथापि अनिश्चितता की स्थिति में प्रयास को निष्फल कहना अनुपयुक्त है, क्योंकि जीव जितना शुभ भावों में रहेगा, कषाय मन्द करेगा उतना तनावमुक्त रहेगा, शान्ति मिलेगी, दुर्गति टलेगी । विशाल - गुरुदेव ! यह कैसे ज्ञात करें कि अमुक व्यक्ति सम्यक् दृष्टि है अथवा मिथ्यादृष्टि है ? - विशाल ! निश्चय में तो केवली भगवन्त ही बता सकते हैं जैसा कि गत जिनवाणी अंक (मार्च, १९९६) में समाधान प्राप्त हुआ था, स्थानांग सूत्र के दशवें ठाणे में कहा है कि "चार - ज्ञान चौदहपूर्व के धारी छद्मस्थ भी यह निर्णय नहीं दे सकते हैं कि अमुक जीव भव्य है अथवा अभव्य, सम्यक्त्वी है अथवा नहीं, अरूपी भाव होने के कारण विकल प्रत्यक्षज्ञानी अर्थात् अवधि एवं मनः पर्यवज्ञानी छद्मस्थ ऐसा नहीं बता सकते । " किन्तु व्यवहार में लक्षणों से भी पहचाना जा सकता है । वे लक्षण हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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