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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन १४७ शब्द 1 प्रचलित है । किन्तु सम्प्रदाय का एक शास्त्रीय अर्थ भी है । यों तो किसी व्यक्ति को बिना किसी निमित्त के भी आध्यात्मिक अनुभूति हो सकती है, किन्तु अधिकतर आध्यात्मिक अनुभूति में सबसे बलवान् निमित्त ऐसा व्यक्ति रहता है जो स्वयं सत्य का अनुभव कर चुका हो। जब किन्हीं साधकों के लिए कोई ऐसा अनुभवी व्यक्ति आत्मानुभूति में निमित्त बनता है तो वे व्यक्ति उस सिद्धपुरुष के प्रति कृतज्ञता के भाव से भरकर उसे अपना गुरु मान लेते हैं । ऐसे सब व्यक्ति जो किसी एक व्यक्ति को अपना गुरु मानते हैं, एक सम्प्रदाय का निर्माण करते हैं । इस प्रकार शास्त्रीय अर्थ में सम्प्रदाय का अभिप्राय है एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक आध्यात्मिक अनुभव का जीवन्त आदान-प्रदान । इस अर्थ में सम्प्रदाय आध्यात्मिक साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग बनता है । किन्तु इस विशुद्ध आध्यात्मिक प्रयोजन के अतिरिक्त किसी अन्य लौकिक प्रयोजन के लिए जब कुछ व्यक्ति गठबंधन कर लेते हैं तो वह सम्प्रदाय अध्यात्म में साधक न होकर बाधक ही सिद्ध होता है । संसार के सभी सम्प्रदायों पर दृष्टिपात करें तो जैनाचार्यों की इसके लिए प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने जैन सम्प्रदाय का आधार सम्यग्दर्शन जैसी आन्तरिक अवधारणा को बनाया ताकि सम्प्रदाय कोई लौकिक रूप धारण न कर ले । सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से है । यह प्रकृति में घटने वाली एक घटना है, कोई जोड़ तोड़ बैठाना वाला गठबंधन नहीं । यदि किसी को जैन सम्प्रदाय में जाना हो तो उसे सम्यग्दृष्टि होना ही होगा । किन्तु सम्यग्दृष्टि क्योंकि एक आन्तरिक घटना है, जिसका कोई बाह्य प्रमाण नहीं है, इसलिए सम्यग्दर्शन के व्यावहारिक रूप की भी चर्चा शास्त्रों में है । जैन - परम्परा में प्रत्येक अवधारणा को दो दृष्टियों से देखा जाता है -- पारमार्थिक और व्यावहारिक । व्यवहार स्थूल है, प्रत्यक्षगोचर है, परमार्थ सूक्ष्म है, परोक्ष है । व्यवहार को शरीर कहें तो परमार्थ को आत्मा कहना चाहिए । परमार्थ के बिना व्यवहार ऐसा ही है जैसा आत्मा के बिना शरीर । दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम हो, अनन्तानुबन्धी कषाय समाप्त हो तो शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य का उदय हो, इन्द्रियों को जीतने वाले जिनों को व्यक्ति अपना उपास्य माने,...ये सब सम्यग्दर्शन के पारमार्थिक लक्षण हैं । इन कसौटियों पर कसकर साधक अपने सम्बन्ध में यह निर्णय ले सकता है कि वह सम्यग्दर्शन के कितना निकट या दूर है । क्योंकि सम्यग्दर्शन के ये लक्षण परोक्ष हैं, इसलिए किसी दूसरे के संबंध में यह घोषणा करना उचित नहीं है कि वह व्यक्ति सम्यग्दृष्टि नहीं है । सम्यग्दर्शन व्यक्ति के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है जिसे जैन शास्त्रों में ग्रन्थिभेद जैसा सार्थक नाम दिया गया है। तीन प्रकार की परम्पराएं देखने में आती हैं- (१) मुसलमान, ईसाई जैसे सम्प्रदाय अपने सम्प्रदाय के विस्तार में विश्वास रखते हैं । इसलिए वे धर्मान्तरण में विश्वास रखते हैं । उनके लिए धर्मान्तरण का अर्थ है कुछ विशेष मान्यताओं को स्वीकार करना । (२) दूसरी ओर वैदिक परम्परा धर्मान्तरण विश्वास नहीं रखती । (३) जैन- परम्परा सम्यग्दर्शन के माध्यम से धर्मान्तरण में नहीं व्यक्ति के रूपान्तरण में विश्वास रखती है। यदि हम जैन धर्म की इस विशेषता को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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