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________________ ८८ .....................जिनवाणी-विशेषाङ्क.... अभिगम सम्यक्त्व-गुरु आदि के उपदेश या अन्य निमित से तत्त्वों पर श्रद्धा होना। ४. पौगलिक सम्यक्त्व-क्षयोपशम सम्यक्त्व में क्योंकि सम्यक्त्व मोहनीय के पुद्गलों का वेदन होता है, अतः इसे पौद्गलिक सम्यक्त्व भी कहते हैं। अपौद्गलिक सम्यक्त्व क्षायिक और उपशम सम्यक्त्व। सम्यक्त्व मोहनीय के उपशम और क्षय होने से किसी भी पुद्गल का वेदन नहीं होने से इन्हें अपौद्गलिक सम्यक्त्व भी कहते हैं। सम्यक्त्व की सुलभता व दुर्लभता ____ आगम के अनेक स्थलों पर सम्यक्त्व (बोधि) की सुलभता और दुर्लभता का दिग्दर्शन कराया गया है। जिनमें से मुख्य सूत्रों का यहां परिचय दिया जा रहा है___ (क) जो जीव सम्यग्दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान रहित हैं और शुक्ल लेश्या से युक्त होकर मरते हैं, उनके बोधि सुलभ है। -उत्तराध्ययन ३६/२५८ ___ (ख) जो मिथ्यादृष्टि हैं, निदान सहित हैं, कृष्णलेश्या परिणाम वाले हैं और हिंसा कर सकते हैं, उनको सम्यक्त्व की प्राप्ति दुर्लभ है। -उत्तरा० ३६/२५९ (ग) जो साधक काम-भोग और रसों में गद्ध हैं और समाधि भाव से भ्रष्ट हैं, वे मरकर असुरकाय में उत्पन्न होते हैं और वहां से निकलकर संसार में परिभ्रमण करते . हैं, उनको बोधि प्राप्त होना दुर्लभ है। -उत्तरा० ८/१५ (घ) जो साधु तप, वाणी, रूप और भाव का चोर है, उसे चारों गति में भ्रमण करते हुए भी बोधि की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। दशवैकालिक ५/२/४८ (ङ) संयम-भ्रष्ट साधु भोगों में आसक्त होकर और बहत से असंयम कृत्यों को करके दुःख पूर्ण अनिष्ट गति में जाता है। अनेक जन्म-मरण करने पर भी उसको बोधि सुलभ नहीं होती। -दशवै. प्रथम चूलिका, गाथा-१४ सम्यग्दर्शन की विशेषताएं व लाभ (क) नन्दीसूत्र-४-दंसणविसुद्धरत्यागा-संघनगर सम्यक्रूप वीथियों से युक्त है। नन्दीसूत्र-५-सम्मत्तपरियल्लस्स-सम्यक्त्व ही जिस संघ रथ के चक्र की परिधि है। ___ नन्दीसूत्र-९-निम्मल-सम्मत्त–सम्यक्त्व रूपी निर्मल चाँदनी से युक्त (संघ-चन्द्र की स्तुति) ____ नन्दीसूत्र-४६-विसेसिआ समद्दिहिस्स मई मइणाणं... सुयणाणं । सम्यक् दृष्टि के सद्भाव में मति और श्रुत ज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि को मति-अज्ञान और श्रुत अज्ञान। नन्दीसूत्र-४७-मिच्छासुअं... चयंति। मिथ्याग्रन्थ, बहत्तर कलाएं समदृष्टि द्वारा ग्रहण होने पर सम्यक् श्रुत हैं । मिथ्यादृष्टि के लिये भी वे सम्यक् के हेतु हो सकते हैं। (ख) आचारांग-३.२.११२-सम्मत्तदंसी न करेति पावं। सम्यक् दृष्टि पाप (हिंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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