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________________ ८६ जिनवाणी-विशेषाङ्क अनुभाग-शक्ति को प्रतिसमय अनन्तगुणी क्षीण करता है। (२) विशुद्धि लब्धि इसको प्राप्त करने से जीव के कषायों में उग्रता कम होती है तथा परिणाम विशुद्ध बनते हैं। ___ (३) देशनालब्धि-छः द्रव्य, नौ तत्त्वों के उपदेश सुनने की इच्छा होती है। उपदेश धारण करने की शक्ति प्राप्त करता है। (४) प्रायोग्यलब्धि-आयु कर्म के सिवाय सात कर्मों की स्थिति को अन्तःकोटाकोटि सागरोपम करता है व कर्मों के रस की तीव्रता को मन्द करता है। (५) करणलब्धि-करण आत्मा की शक्ति को कहते हैं। करण तीन हैं-यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । कर्मग्रन्थ में इनका विवरण है कि जिस प्रकार नदी में बहता हुआ पत्थर पानी के निरन्तर वेग से व अन्य पत्थरों की रगड़ से घिसता-घिसता गोल 'शालिग्राम' हो जाता है, उसी प्रकार अनन्त काल से दुःख भोगते-भोगते आयु कर्म वर्ज कर शेष सात कर्मों की स्थिति को अन्तः कोटाकोटि सागरोपम परिमाण कर देता है, यह यथाप्रवृत्तिकरण (अधः प्रवृत्तकरण) है। यहां तक अभव्य जीव भी आ सकता है। इस करण वाला जीव राग-द्वेष की तीव्र गांठ के पास आ जाता है, फिर विशेष शुद्ध परिणाम से जीव ग्रन्थि-भेदन करने का प्रयत्न करता है, यह अपूर्वकरण है। इस करण में प्रति समय नवीन-नवीन अर्थात् अपूर्व-अपूर्व परिणाम होते हैं, इसलिये यह अपूर्वकरण कहलाता है। फिर और अधिक विशुद्धि से साधक ग्रन्थि-भेदन करता है यह अनिवृत्तिकरण है जिसमें जीव सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना नहीं लौटता। अनिवृत्तिकरण का कुछ भाग शेष रह जाने पर जीव अन्तरकरण क्रिया करता है, जिसमें मिथ्यात्व के पुद्गल जो उदय में आ.गये हैं, उनको भोगकर वह क्षय कर देता है और जो अन्तर्मुहूर्त में उदय में आने वाले हैं, उनको एक-अन्तर्मुहुर्त के लिये आगे खिसका देता है अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त काल तक न तो मिथ्यात्व का विपाकोदय होता है और न प्रदेशोदय । फलस्वरूप परिणामों में शुद्धात्म-भावों की प्रतीति होती है। इसे उपशम समकित या उपशम श्रद्धा भी कहते हैं। जिन मिथ्यात्व के दलिकों को अन्तरकरण क्रिया में एक अन्तर्मुहूर्त के लिये आगे स्थापित कर दिया था उनको साधक तीन पुञ्जों (शुद्ध, अर्धशुद्ध, अशुद्ध) में विभक्त करता है। उपशम सम्यक्त्व की स्थिति पूर्ण होने पर संक्लिष्ट परिणाम उत्पन्न होने से जीव गिरता है और जिस पुञ्ज में अधिकता होती है, वहां जाता है। शुद्ध पुञ्ज में क्षयोपशम समकित वाला अर्धशुद्ध में मिश्र मोहयुक्त और अशुद्ध में मिथ्यात्वमोह युक्त हो जाता है। कर्मग्रन्थानुसार अनादि मिथ्यात्वी को प्रथम बार उपशम समकित ही आती है और वह भी मनुष्य भव में, परन्तु सिद्धान्तानुसार क्षयोपशम समकित भी प्रथम बार आ सकती है और वह भी चारों गतियों में। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में मेघकुमार के जीव को हाथी के भव में क्षयोपशम समकित होने का उल्लेख है। सम्यक्त्व के प्रकार अनन्तानुबन्धी-चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शनमोहनीयत्रिक (मिथ्यात्व, For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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