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था और अन्य धर्मों के भी आप गहरे अभ्यासी थे । विद्वत्ता के साथकेसाथ आप एक अच्छे वक्ता थे। सिर्फ आप में विद्वत्ता ही नहीं थी किन्तु चारित्र भी ब्रहत उच्च कोटि का था । आपके स्वभाव में सरलता व्यवहार में नम्रता, वाणी में मधुरता, मुख पर सौम्यता, हृदय में गम्भीरता, मन में मृदुता, भावों में भव्यता और आत्मा में दिव्यता आदि अनेक गुण सौरभ से आप सुवासित थे ।
आपका जन्म मेवाड के एक छोटे से किन्तु सुरम्य लहलहातेखेतों वह बडे बडे पहाडों की परिधि से घिरे हुए 'बनोल' नामक गाव में एक वैरागी कुटुम्ब में वि. सं. १९४१ में हुआ। आपके पिता का नाम प्रमुदत्तजी और माता का नाम श्रीमति विमलाबाई था । आपने १६ वर्ष की बाल्य अवस्था में मय वैराग्य जैन समाज के ख्यातनाम आचार्य पूज्य जवाहरलाल जी महाराज के पास मेवाड प्रान्त के जसवन्त गढ में वि. सं. १९५८ में दीक्षा ग्रहण की । गुरु की अनन्य कृपा से आपने आगम, संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण आदि का अध्ययन कर उच्च कोटि की विद्वत्ता प्राप्त की। आपकी विशिष्ट विद्वत्ता से प्रभावित होकर कोल्हापुर के महाराजा ने आपको कोल्हापुर राजगुरु एवं शास्त्राचार्य की पदवि से विभूषित किये । आएकी त्याग, तपस्या संयम की उत्कृष्टता देखकर कगची संघ ने 'जैन दिवाकर' और 'जैन आचार्य पद देकर अपने आपको गौरवान्वित किया ।
पूज्यश्री जितने महान थे, उतने ही विनम्र भी थे । आप एक पुष्पित एवं फलित विशाल वृक्ष की तरह ज्यों ज्यों महान प्रख्यात एवं प्रतिष्ठित होते गये त्यों त्यों अधिकाधिक विनम्र होते चले गये । गुरुजनों के प्रति ही नहीं अपने से लघुजनों के प्रति भो आपका हृदय प्रेम से छलकता रहता था । छोटे से छोटे साधुओं की भी रोगादि कारणों में आपने वह सेवा की है, जो आज भी यशो गाथा के रूप में गाई जा रही है।
___ सुन्दरी उषा का प्रत्येक चरण-निन्यास बहुरंगी संध्या में विलीन हो जाता है । अथ के साथ इंति लगी रहती है । विक्रम सं. २०२९ में पौषवदि १४ को ता० २।१।७३ को संथारा ग्रहण किया और पोषवदि अमावस्या को ता० ३।११७३ के दिन जन जीवन को आलोकित करनेवाला वह दिव्य आलोक दिव्य लोक का यात्री हो गया । विवेक और विवेक का प्रखर भास्कर-जो मेवाड के क्षितिज पर उदय हुआ था, वह गुजरात के अस्ताचल पर अस्त हो गया । सरसपुर अहमदाबाद के स्थानकवासी जैन उपाश्रय में सथारा विधिवत् पूर्ण करके आचार्य प्रवर श्रीघासीलालजी महाराज ने इस असार संसार को छोडकर अमर पद प्राप्त कर लिया ।
जन्म जीवन और मरण-यह कहानी है मनुष्य की । किन्तु पूज्यश्री का जन्म था कुछ करने के लिए । उनका जीवन था, परहित साधना के लिए । उनका मरण था फिर न मरने के लिए, बचपन, जवानी और वृद्धावस्था-यह इतिहास है मानव का । किन्तु इस इतिहास को उन्होंने नया मोड दिया । उनका बचपन खेल कूद के लिए नहीं था, वह था ज्ञान की साधना के लिए । उनकी जवानी भोग विलास के लिए नहो, वह थो संयम की साधना के लिए । उनकी वृद्धावस्था अभिशाप नहीं, वह था एक मंगल मय वरदान । पूज्य श्री ने अपने जीवन का सर्वस्व समर्पित कर दिया था सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय ।
नम्र पं. करुणाशंकर वै. पंड्या
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