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________________ ६२ उसका नाम शंख रखा गया । शंख ने शैशव काल पार कर यौवन अवस्था में कदम रखा । इधर प्रतिमती का जीव देव लोक से चवकर अंगदेश की नगरी पा के राजा जितारी के घर पुत्रो के रूप में जन्मा । [ इनके एक से छह सभी के वर्णन के लिए देखिए भगवान श्री अरिष्टनेमि का जीवन चरित्र ] उसका नाम यशोमती रखा गया । यशोमती अत्यन्त रूपवती थी। उसने श्रीषेण के पुत्र शंख की प्रशंसा सुन रखी थी । उसने मन ही मन शंख को अपने पति के रूप में चुन लिया था । इधर विद्याधरपति मणिशेखर भी यशोभती को चाहता था। उसने जितारी से यशोमती की मांग की किन्तु जितारी ने मणिशेखर की मांग को ठुकरा दिया । तब विद्या के बलसे मणिशेखर यशोमती को हरकर ल गया । शंखकुमार को जब इस बात का पता लगा तो वह यशोमती को ढूंढने निकला । अन्त में एक पर्वत पर मणिशेखर को पकड़ा और उसको खटकारा । दोनों में बुद्ध हुआ। मणिशेखर हार गया। उसने क्षमा याचना कर यशोमती को उसे सौंप दिया। शंख ने यशोमती के साथ विवाह किया । शेख की वीरता से प्रसन्न होकर अनेक विद्याधरों ने भी अपनी कन्याएँ उसे अर्पण की शेख । सबको लेकर हस्तिनापुर गया । शेख की पराक्रम गाथा सुनकर उसके माता-पिता को बडो प्रसन्नता हुई । शेख के पूर्वजन्म के बन्धु सूर और सोम भी आरण देवलोक से चवकर श्रीषेण के घर यशोधर, और गुणधर नाम से पुत्र हुए। राजा श्रीषेण ने पुत्र को राज्यगद्दी देकर दीक्षा धारण की । जब उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब राजा शंख अपने छोटे भाईयों के साथ उनका उपदेश सुनने गया । उपदेश के अन्त में शंख ने पूछा भगवन् ! मेरा यशोमती पर इतना प्रेम क्यों है ?| श्रीषेण केवली भगवानने कहा जब तू धन्य कुमार था लोक में यह तेरी मित्र हुई । चित्रगति के भव में यह तेरी में यह तेरो मित्र हुई अपराजित के भव में यह तेरी प्रीतिमती यह तेरी निहुरे | इस भव में यह तेरी यशोमती नाम की पत्नी हुई है । इस तरह यशोमती के साथ तुम्हारा सात भवों का सम्बन्ध है । आगामी भव में तुम दोनों अपराजित देवलोक में उत्पन्न होओगे और वहां से चवकर तूं भरतखण्ड में अरिष्टनेमि नामका बावीसवाँ तीर्थङ्कर होगा । यशोमती राजीमती नाम की स्त्री होगी । तुम से हीं विवाह की निश्चय कर यह अविवाहित अवस्था में ही दीक्षित बनेगी और मोक्ष में जायगी । तब यह तेरी धनवतीं पत्नी थी। सौधर्मदेवरत्नवती नाम की प्रिया थी । महेन्द्रदेवलोक नामकी पत्नी थी । आरण देवलोक में अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर शंख राजाको वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने अपने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ले ली । यशोमती ने एवं उनके छोटे भाईयों ने एवं मित्रों ने भी शंख राजा के साथ दीक्षा ग्रहण की। शंख मुनि ने बीस स्थानों की आराधना कर तीर्थङ्कर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त में अनशन कर शंखमुनि अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थितिवाले महर्दिक देव बने उनके अनुजमुनि एवं यशोमती साध्वी भी अपराजित विमान में महर्दिक देब बने । यदुवंश में अंधकवृष्णि और भोजवृष्णि नाम के दो परम प्रतापी राजा हुए। अंधकवृष्वि शौर्यपुर के और भोजवृष्णि मथुरा के राजा थे। महाराज अधकवृष्णि के समुद्रविजय, अक्षोभ स्तिमित, सागर, हिमवान, अचल, धरण, पूरण, अभि चंद, और वसुदेव ये दस दशार पुत्र थे । समुद्र विजय के बड़े पुत्र का नाम अरिष्टने में था जिनका वर्णन पाठकों के सामने संक्षेप से दिया जाता है। महाराज अंधकवृष्णि के छोटे पुत्र वसुदेव के श्रीकृष्ण आदि पुत्र हुए । कृष्ण की माता का नाम देवको था । देवकी ने एक समान आकृति रूप एवं रंगवाले आठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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