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________________ ५४ उस समय विदेहराज की कन्या मल्लीकुमारी का देवप्रदत्त कुण्डल युगल का सन्धिभाग खुल गया । उसने सांधने के लिए नगरी के चतुर से चतुर सुवर्णकारों को बुलाया गया । सुवर्णकार उस कुण्डल युगल को लेकर घर आए और उसे जोड़ने का प्रयत्न करने लगे । नगरी के सभी स्वर्णकार इस काम में जुट गये लेकिन अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी वे कुण्डल - युगल के सन्धि--भाग को नहीं जोड़ सके । अन्त में हताश होकर वे महाराज के पास पुनः पहुँच कर और अनुनयविनय करते हुए कहने लगे “स्वामी ! हमने इस कुण्डल युगल को जोडने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन हम इसमें असफल हो गये । अगर आप चाहें तो हम ऐसा ही दूसरा दिव्य कुण्डल युगल बनाकर आपकी सेवा में उपस्थित कर सकते हैं ।” महाराज सुवर्णकारों की बात सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उन्हों ने स्वर्णकारों को देश निर्वासन की आज्ञा दे दी । महाराज के आदेश से ये लोग अपने परिवार और सामान के साथ मिथिला से निकल कर काशी देश की राजधानी बनारस आ पहुँचे, वे लोग बहुमूल्य उपहार लेकर महाराजा शंख की सेवा में पहुंचे और उपहार भेंटकर कहने लगे- “स्वामी ? हम लोगों को मिथिला नगरी के कुम्भराजा ने देश निष्कासन की आज्ञा दी है वहां से निर्वासित होकर हम लोग यहां आये हैं हम लोग आप की छत्र छाया में निर्भय होकर सुख पूर्वक रहने की इच्छा करते हैं । काशी नरेश ने स्वर्णकारों से पूछा -- कुम्भराजा ने आपको देश निकालने की आज्ञा क्यों दी । स्वर्णकारों ने उत्तर दिया-- स्वामी कुम्भराजा की पुत्री मल्लीकुमारी का कुण्डल- युगल टूट गया । हमने उसे जोडने का प्रयत्न किया लेकिन उसे हम जोड़ नहीं सके जिससे क्रुद्ध होकर महाराजा ने देश निकाले की आज्ञा दी है । शंख राजा ने पूछा- मल्लीकुमारी का रूप कैसा है ? स्वर्णकारों ने कहा -मल्लीकुमारी के रूप की क्या प्रशंसा की जाय ऐसा रूप तो देव कन्या का भी नहीं हो सकता । महाराज शंख ने जब मल्लीकुमारी के रूप की प्रशंसा सुनी तो वह उस पर आसक्त हो गया । महाराज शंख ने स्वर्णकारों को नगरी में रहने की आज्ञा प्रदान कर दी । वाद में उसने अपना दूत बुलाया और उसे कहा- तुम मिथिला जाओ और मल्ली कुमारी की मेरी भार्या के रूप में मंगनी करो । महाराजा की आज्ञा प्राप्त कर दूत ने मिथिला नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया । एक समय विदेह के राजकुमार मल्लदिन्न ने अपने प्रमद बन में एक विशाल चित्रसभा का निर्माण कराया तथा नगर के अच्छे से अच्छे चित्रकों को चित्र निर्माण का आदेश दिया । राजकुमार के आदेश से चित्रकारों ने चित्रसभा को विविध चित्रों से अलंकृत करना आरम्भ कर दिया। उनमें एक ऐसा भी चित्रकार था जो किसी भी पदार्थ का एक भाग देखकर उसका संपूर्ण चित्र आलेखित कर लेता था एक बार इस चित्रकार की दृष्टि पर्दे के अन्दर रही हुई मल्लीकुमारी के अंगूठे पर पडी । उसे अपनी कला का परिचय देने का एक अच्छा अवसर मिला जानकर उसने उसी क्षण अपनी तूलिका से मल्लीकुमारी का संपूर्ण चित्र बना डाला अन्य चित्रकारों ने भी एक से एक सुन्दर चित्रो को बनाकर चित्रशाला को सजाया । युवराज ने चित्रकारों का खूब सत्कार किया तथा उन्हें बडा पुरस्कार दे कर विदा किया । एक बार चित्रशाला - का निरिक्षण करते हुए मल्लदिन्नकुमार की दृष्टि मल्लीकुमारी के चित्र पर पडी मल्लीकुमारी के हूबहू चित्र को देख कर युवराज मल्लदिन्न अत्यन्त क्रुद्ध हुआ उसने चित्रकार के बध का हुक्म सुना दिया । अन्य चित्रकारों को जब इस बात का पता लगा तो वे राजकुमार के पास पहुंचे और राजकुमार से चित्रकार का वध न करने की प्रार्थना करने लगे । चित्रकारों की प्रार्थना पर राजकुमार चित्रकार के वध के बदले उसके अंगुष्ठ और कनिष्ठ अंगुली को छेदने की और देश निर्वासन की आज्ञा दे दी । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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