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करली । कुछ समय के बाद महाराज बल को भी एक पुत्र रत्न हुआ जिसका नाम बलभद्र रखा था । बलभद्र युवा हुआ और उसका अनेक सुन्दर राजकुमारियों के साथ विवाह कर दिया गया ।
कुछ समय के बाद फिर धर्मघोष मुनि का इस नगरी में आगमन हुआ । उनका उपदेश सुनकर महाराजा महाबल के मन में संसार के प्रति विरक्ति हो गई उन्होंने अपने मित्रों से संयम धारण करने की भावना प्रकट की । सभी मित्रों ने महाबल की मनो कामना की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए स्वयं भी दीक्षा धारण करने का निश्चय किया । मित्रों का सहयोग पाकर महाबल का उत्साह बहूत बढ गया । उन्होंने अपने उत्तराधिकारि सुपुत्र बलभद्र का राजसिंहासन पर अभिषेक किया । राजा बनने के बाद बलभद्र ने राजोचित समारोह के साथ अपने पिता की दीक्षा आ उत्सव मनाया । महाबल ने अपने छहों मित्रों के साथ धर्मघोष स्थविर के समीप दीक्षा धारण की और संयम की उत्कृष्ट भावना से आराधना करते हए विचरने लगे । जिस प्रकार राज्यकार्य में छहों मित्रों ने महाबल को साथ दिया था उसी प्रकार संयम साधना में भी देने लगे।
एक बार सभी ने मिलकर यह निश्चय किया कि हम सब मिलकर एक साथ तप कि आराधना करेंगे । और साथ ही में पारणा भी करेंगे । ईसी संकल्प के अनुसार सातों मुनिराजो ने छठ छठ का तप प्रारंभ कर दिया । एक छठ की तपस्या में महाबल मुनि ने अपने मित्र मुनियों से भी अधिक तप करने का निश्चय किया । तदनुसार छठ का पारणा न करके अष्टमभक्त का प्रत्याख्यान कर लिया किन्तु यह बात मित्रों से गुप्त रक्खी । छठ की समाप्ति पर अन्यमुनियों ने पारणा करने के भाव प्रकट किये तो महाबलमुनि ने भी यही भाव व्यक्त किया । जब अन्यमुनियों ने पारणा कर लिया तो वो कहने लगे कि में तेला करूगा । जब छहों अनगार चतुर्थ भक्त (उपवास) करते तो वै महाबल अनगार षष्ठमभक्त ग्रहण करते । इस प्रकार अपने साथी मुनियों से छिपाकर कि महाबल मुनि अधिक तप करते थे । इसी कपट के फलस्वरूप उन्हें स्त्री वेद का बन्ध हुआ।
अरिहन्त वत्सलता १, सिद्ध वत्सलता २, प्रवचनवत्सलता ३, गुरुवत्सलता ४, स्थविरवत्सलता ५, बहुश्रुतवत्सलता ६, तपस्वीवत्सलता ७, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ८, दर्शनविशुद्धि ९, तत्त्वार्थविनय १०, आवश्यक (प्रतिक्रमण) ११, शीलवतानतिचार १२, क्षणवलसंवेग १३, तप १४, त्याग १५, वैयावृत्त्य १६, समाधि-शाताउपजाना १७, अपूर्वज्ञानग्रहण १८, श्रुतभक्ति १९, प्रवचनप्रभावना २० इन वीस स्थान कों में वसनेवाला ही स्थानकवासी कहलाता है, इसी से तीर्थङ्कर नाम कर्म उपार्जन करते हैं इसके अतिरिक्त महाबल मुनि ने उत्कृष्ट भावना से अनेक प्रकार की कठोर तपस्या प्रारंभ करदी जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध कर लिया । बारह प्रकार की भिक्षु प्रतिमा की सम्पूर्ण आराधना कर सिंहनिष्क्रीडित, लघुसिंहनिष्क्रीडित एवं महासिंहनिष्क्रीत तप किये ।
अनेक प्रकार के अन्य भी तप करने के कारण उनका शरीर अन्यन्त कृष हो गया । शरीर का रक्त और मांस सूख गया । शरीर हड्डियों का ढाचामात्र रह गया । अन्त में अपना आयुष्य अल्प रहा जानकर सातो मुनिवर स्थविर की आज्ञा प्राप्तकर 'चारु' नामक वक्षस्कार पर्वत पर आरूढ हुए । वहां दो मास की संलेखना करके अर्थात् एक सौ बीस भक्त का अनशन कर चौरासी लाख वर्षों तक संयम पालन करके, चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य भोग कर जयन्त नामक तीसरे अनुत्तर विमान में देव पर्याय से उत्पन्न हुए । इन में महाबलमुनि ने ३२ सागरोपम की और शेष छह मुनिवरों ने कुछ कम ३२ सागरोपम की उत्कृष्ट आयु प्राप्त की । महाबल के सिवाय छह देव, देवायु पूर्ण होने पर भारत वर्ष में विशुद्ध माता-पिता के वंशवाले राजकुलों में अलग अलग कुमार के रूप में उत्पन्न हुए । वे इस प्रकार है
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