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करते हुए एक समय उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्हों ने प्रया लेने का निश्चय किया । उस समय लोकान्तिक देवों ने आकर लोक कल्याण के लिए दीक्षा लेने की भगवान से प्रार्थना की तदनुसार वर्षीदान देकर मात्र कृष्णा द्वादशी १२ के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में देवों द्वारा सजाई गई 'चन्द्रप्रभा' नामक
शिविका पर आरूढ़ होकर सहसान उद्यान में आये दिन के अन्तिम प्रहर में छह के तप के साथ प्रवज्या ग्रहण की। भगवान के साथ एक हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की। भगवान को उस समय मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ । तीसरे दिन भगवान ने छठ तप का पारणा रिष्ट नगर के महा राजा पुनर्वसु के घर परमान्न से पारणा किया । वहाँ वसुधारादि पांच दिव्य प्रकगट हुए ।
तीन महीने तक छद्मस्थकाल में विचरण कर भगवान भद्दिलपुर के सहस्राम्र उद्यान में पधारे । वहां पीपल वृक्ष के नीचे पौष कृष्णा चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में घनघाती कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त किया । देवों ने समवशरण की रचना की । उपस्थित परिषद् में भगवान ने उपदेश दिया । भगवान के उपदेश से अनेक नर नारियों ने चारित्र ग्रहण किया उनमें आनन्द आदि ८१ गणधर मुख्य थे। भगवान ने चार तीर्थ की स्थापना की। भगवान के शासन का अधिष्ठायक देव ब्रह्मयक्ष और अशोका नाम की देवी अधिष्ठायिका हुई ।
तीन मास कम पच्चीस हजार वर्ष तक भगवान भव्यजीवों को उपदेश देते रहें । अपना निर्वाणकाल समीप जान कर भगवान समेत शिखर पर पधारे। वहां एक हजार मुनियों के साथ अनशन ग्रहण किया एक मास के अन्त में वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में अवशेष कर्मों को खपाकर भगवान हजार मुनियों के साथ मोक्ष में पधारे । इन्द्रों ने भगवान का देह संस्कार किया ।
भगवान के परिवार में एक लाख मुनि १००००० एक लाख छ हजार १०६००० साध्वियां १४०० चौदह सो पूर्वघर, सात हजार दोसो ७२०० अवधिज्ञानी, साढ़े सात हजार ७५०० मन:पर्यय ज्ञानी, सात हजार ७००० केवलज्ञानी, बारह हजार १२००० वैक्रिय लब्धिवाले पांच हजार आठसौ ५८०० वाद लब्धिवाले, दो लाख नवासी हजार २८९००० श्रावक एवं चारलाख अठावन ४५८००० हजार श्राविकाएं थी । भगवान ने कुमार वस्था में पच्चीस हजार पूर्व, राज्यत्व काल में पचास हजार पूर्व, दीक्षा पर्याय में पच्चीस हजार पूर्व, व्यतीत किये। इस प्रकार भगवान की कुल आयु एक लाख पूर्व की थी। भगवान श्री सुविधिनाथ के निर्वाण के पश्चात् नौ कोटि सागरोपम बीतने पर भगवान श्रीशीतलनाथ मोक्ष में पधारे !
११- भगवान श्री श्रेयांसनाथ-
पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्वविदेह में कच्छविजय के भीतर क्षेमा नाम की बड़ी सुन्दर नगरी थी । वहां नलिनीगुल्म नाम का राजा राज्य करता था। उन्होंने वज्रदत्त मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की तप करते हुए उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । वे बहुत वर्षोंतक संयम का पालन करते हुए आयपूर्ण करके महाशुक्र देवलोक में महर्द्धिक देव रूप से उत्पन्न हुए |
भारत वर्ष में सिंहपुर नाम का नगर था । इस नगर के महाराजा विष्णुराज राज्य करते थे । उनकी पटरानी का नाम वेष्णुदेवी था नलिनीगुल्म विमान का जीव देवलोक का मुखमय जीवन व्यतीत । करके आयुष्य पूर्ण होने पर ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन श्रवण नक्षत्र के योग में विष्णुदेवी की कूक्षि में उत्पन्न हुआ। विष्णुदेवी ने तीर्थंकर के योग्य चीदह महास्वप्न देखे । भाद्रपद कृष्णा द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में गेंडे के चिह्न से चिह्नित सुवर्णवर्णी पुत्र को जन्म दिया। भगवान के जन्मते ही समस्त
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