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________________ ३४ पौषवदी १३ के दिन अनुराधा नक्षत्र में देवों द्वारा तयार की गई 'अपराजिता' नामकी शिबिका में बेटकर एक हजार राजाओं के साथ सहस्राम्र उद्यान में दिन के पिछले पहर में प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय भगवान को मनः पयेयज्ञान उत्पन्न हुआ । दूसरे दिन भगवान ने पद्मखण्ड के राजा सोमदत्त के घर परमान्न से छठ का पारणा किया। तीन महिने की उत्कृष्ट साधना के बाद चन्द्रानना नगरी के सहस्राम्र उद्यान में फाल्गुनवदि सप्तमी के दिन अनुराधा नक्षत्र में भगवान ने केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया । इन्द्रादि देवो ने केवलज्ञान उत्सव मनाया और समवशरण की रचना की । भगवानने भव्य जीवो को उपदेश दिया । उस समय दत्त आदि ९३ महापुरुषों ने दीक्षा' लेकर गणधर पद प्राप्त किया। २४ पूर्व तीन मास न्यून एक लाख पूर्वतक विहार करते हुए भगवान भव्य जीवों को प्रतिबोध देते रहे । अपना निर्वाण काल समीप जानकर भगवान सम्मेतशिखर पर पधारे । वहां पर एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन कर निर्वाण प्राप्त किया । निर्वाण का दिन भाद्रपदवदि सप्तमी था और श्रवन नक्षत्र का योग था । भगवान की काया १५० धनुष उंची थी । भगवान के दत्त आदि ९३ गण घर, २५०००० साधु, सोमानी आदि ३८००००; हजार साध्वियाँ २००० चौदह पूर्वधर ८००० अवधिज्ञानी, ४००० मनः पर्ययज्ञानी १०००० केवली, १४००० वैक्रियधारी, ७६०० वादी, २५०००० श्रावक और ४९१००० श्राविकाए हुई । श्रीसुपार्श्वनाथ के मोक्ष गये पीछे नौ सौ कोटी सागरोपम बीतने पर श्रीचन्द्रप्रम भगवान मोक्ष में पधारे। ९ भगवान श्रीसुविधिनाथ____ पुष्करवर द्वीपार्ध के पूर्व विदेह में पुष्कलविती विजय में पुडरीकिनी नामकी नगरी थी । वहां महापद्म नामके राजा राज्य करते थे । । उन्होंने संसार से विरक्त हो जगन्नद नामके स्थविर अणगार के पास दीक्षा ग्रहण की । एकांवली आदि कठोर तपश्चर्या करते हुए महापद्म मुनि ने तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन किया । अन्त में वे शुभ अध्यवसाय से कालकर वैजयन्त नामक देव विणान में महद्धिक देव रूप में उत्पन्न हुए। भरत क्षेत्र में कांकदी नामकी नगरी थी । उस नगरी का राजा सुग्रीव था । उनकी महारानी का था । वैजयन्ते विमान में ३३ 'सागरोपम की आयु पूर्ण करके महापद्मदेव का जीव फाल्गुन का नवमी को मल नक्षत्र के योग में महाराज रामा देवी की कुक्षि में उत्पन्न हआ । चौदह महास्वप्न देखे । मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी के दिन मूल नक्षत्र में गौर वर्णीय मत्स्य के चिह्न से चिह्नित महारानी ने पुत्र रत्न को जन्म दिया । इन्द्रादि देवों ने जन्म कल्याणक मनाया । गर्भावस्था में गर्भ के प्रभावसे रोमादेवी सभी प्रकारके कार्यो को सम्पन्न करने की विधि में कुशल हुई इस लिए पुत्र का नाम 'सुविधि' रखा गया और गर्भ काल में माता को पुष्प का दोहद उत्पन्न हुआ था इसलिए बालक का दसरा नाम 'पुष्पदन्त' रखा गया पुष्पदंत युवा होने पर पिता के आग्रह से भगवान ने विवाह किया । वे ५० पचास हजार पूर्व तक युवराज पद पर रहे। बाद में पिता ने उन्है राज्यगद्दी पर अधिष्ठित किया । पचास हजार पूर्व और अष्ठाइस पूर्वागं तक राज्य का शासन किया । एक समय लोकान्तिक देवों ने आकर प्रार्थना की कि हे प्रभु ! अंब आप 'जगत के हितार्थ दीक्षा 'धारण कीजिये । तब प्रभु ने वर्षी दान दिया और मार्गशीर्ष कृष्णा छठ ६. के दिन मूल नक्षत्र में देवों द्वारा तैयार की गई 'अकण भा' नामकी शिबिका में बैठकर एक हजार राजाओं के साथ सहस्राम्र उद्यान में जा कर दीक्षा ग्रहण की । इन्द्रादि देवोंने भगवान का दीक्षा उत्सव मनाया । उस दिन भगवान के छठ की तपश्चर्या थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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