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________________ भगवान केवलज्ञान के बाद एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक विचरते रहें । भगवान श्री ऋषभदेव के ऋषभसेन आदि ८४ गणधर, ८४०० ० मुनि, ३ ० ० ० ० ० साध्वी, ३० ५००० श्रावक, ५५४ ० ० ० श्राविकाएं, ४७० चौदह पूर्व धर, ९००० अवधिज्ञानी, २०००० केवलज्ञानी, ६०० वैक्रिय लब्धि धारी, १२६५० मनः पर्यवज्ञानी और १२६५० वादी थे । अपना निर्वाण काल समीप जानकर भगवान दस हजार मुनियों के साथ अष्टापद पर्वत पर पधारे । वहां छ दिन का अनशन ग्रहण कर माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन अभिजित नक्षत्र में मोक्ष प्राप्त किया । भगवान के निर्वाण के समय १०७ पुरुषों ने भी सिद्धि प्राप्त की । दस हजार मुनियों ने भी मोक्ष प्राप्त किया । भगवान का एवं अन्य मुनियों का निर्वाण महोत्सव इन्द्र, देव देवियों ने किया । भगवान श्रीअजितनाथ का पूर्वभव जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सनामक देश में सुशीमा नाम की नगरी थी । वहां विमलवाहन नामका राजा राज्य करता था । वह बडा न्यायी एवं धर्म प्रिय था । एक समय संसार की विचित्रता पर विचार करके उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने अरिदम नामक आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । निरतिचार संयम का पालन करते हुए उसने बीस स्थान की वारंवार आराधना की और तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । एकावली, कनकावली रत्नावलि आदि अनेक प्रकार की तपस्या की । अन्त में संथारा ग्रहण कर देह का त्याग किया । वह मर कर विजय नामक प्रथम अनुत्तर विमान में तेतीस सागरोंपम की उत्कृष्ट आयु वाला देव हुआ। ___वहां देवताओं के शरीर एक हाथ के होते हैं । उनके शरीर चन्द्र किरणों की तरह उज्ज्वल होते हैं । वे सदैव अनुपम सौख्य का अनुभव करते रहते हैं । वे अपने अवधिज्ञान से समस्त लाकनाालका का अवलोकन करते हैं । वे तेतीस पक्ष बीतने पर एक बार श्वास लेते हैं । तेतीस हजार वर्ष में एक हि बार उन्हें भोजन की इच्छा होती है । विमलवाहन मुनि का जीव भी इसी स्वर्गीय सुख का अनुभव करने लगा । जब आयु के छह महिने शेष रहें तब अन्य देवताओं की तरह उन्हें देवलोक से चवने का किंचित् भी दुःख नहीं हुआ प्रत्युत भावी तीर्थकर होने के नाते उनका तेज और भी बढा । वे देवलोक में भी धर्म और धर्म के स्वरूप के विषय में चिन्तन करते ही रहते थे । ऐश्वर्य सम्पन्न देव भव का आयु पूर्ण कर वे अनुत्तर विमान से च्युत हुए । भगवान श्रीअजितनाथ का जन्म भरत क्षेत्र में विनीता नामकी नगरी थी । इस नगरी में इक्ष्वाकु वंश तिलक जितशत्र नामका राजा राज्य करता था उनके छोटे भाई का नाम सुमित्र विजय था यह युवराज था । जितशत्रु राजा की रानी का नाम विजयादेवी था एवं सुमित्रविजय को रानी का नाम वैजयन्ती था। दोनों रानियां अपने रूप और गुणों में अनुपम थी । वैशाख शुक्ला १३ को विमलवाहनमुनिराज का जीव महारानी विजयादेवी की कुक्षि में विजयनामके अनुत्तर विमान से आकर उत्पन्न हुआ । उस रात्रि के अन्तिम प्रहर में महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे उसी रात को सुमित्र विजय की महारानी ने भी चोदह महास्वप्न देखे किन्तु श्रीमती विजयादेवी के स्वप्नों की प्रभा की अपेक्षां इनके स्वप्नों की प्रभा कुछ मंद थी। गर्भकाल के पूर्ण होने पर महारानी विजयादेवी ने माघ शुक्ला अष्टमी की रात्रि में लोकोत्तम पुत्ररत्न को जन्म दिया । देव देवियों एवं राजा ने पुत्र जन्मोत्सव किया । भगवान के जन्म के थोडे काल के बाद ही युवराज्ञी वैजयन्ती ने भी एक दिव्य बालक को जन्म दिया । शुभ मुहूर्त में पुत्र का नाम करण किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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