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________________ सत्संगति सामायिक, प्रतिक्रमण. आय बिल, उपवास आदि तपस्याएँ एवं अन्य धार्मिक नित्यकर्म आपके बाल्यकाल से ही चालू थे । बाद में वे ओर ही विशिष्टता पकडते गये घर के नन्हें नन्हें बच्चों को एकत्रित कर बडे आकर्षक ढंग से धार्मिक वार्ताएँ व कहानियाँ आप सुनायां करती है फलस्वरूप समूचा परिवार धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत हो गया । सज्जन्न परिवार की महिला होते हुए भी आपकी सादगी आज की फेशन परस्त नारी के लिए एक आदर्श उपस्थित करती है। ___इस प्रकार सांसारिक और पारमार्थिक जीवन व्यतीत करते हुए श्रीमान् अमीचन्दभाई के चार सन्ततियाँ हुई । उनमें प्रथम पुत्र श्री वनेचन्दभाई का जन्म सं. १९८४ में आश्विन शुक्ला तृतीया के दिन दिनाङ्क ३१।१०।१९२८ का हुआ । एवं द्वितीय पुत्र चन्द्रकान्तभाई का जन्म सं. १९९२ के कार्तिक शुक्ला एकादशी बुधवार दिनांक ६-११=१९३५ में हुआ । तीसरे नंवर में सुलक्षणी इन्दुबहन का जन्म सं. १९.९४ आश्विन कृष्णा बीजने मंगलवार ता. ८-११ १९३८ में हुआ । एवं छोटे पुत्र श्री रमेशचन्द्र का जन्म सं १९९७ के चैत्र कृष्णा द्वितिया शनिवार को ता १२-४-१९४१ में हुआ। इन सर्व के जन्म खाखीजालियां में ही हुए । ज्येष्ठ पुत्र श्रीमान वनेचन्दभाई एक साहसिक एवं कुशल व्यापारी होने के साथ साथ अत्यन्त धार्मिक वृत्ति वाले व्यक्ति हैं । धर्मध्यान, धार्मिक क्रिया और तपस्या में बडी रुचि रखते हैं । प्राथमिक शिक्षा प्रात करके व्यवसायार्थ आप बेंगलोर गये वहाँ महावीर टेक्स टायलस्टोर्स के नाम एक छोटा-सा व्यवसाय प्रारंभ किया। योग्यता ऐवं सजाई से व्यवसाय करने से अल्प समय में ही आपने बडी अच्छी उन्नति करली और प्रसिद्ध व्यापारियों में अपना प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त कर लिया। धीरे-धीरे व्यवसाय में प्रगति करते हुए आपके दोनों भाई को बेंगलोर बुला लिये उनमें चन्दकान्तभाई को अपने व्यवसाय में सहभागी बना कर एक कुशल व्यापारी बना दिया । अपने सबसे छोटे भाई रमेशचन्द को कॉलेज की उच्चकोटि की शिक्षा देकर मिकेनिकल एंजिनियर बनाया । श्री रमेशचन्दभाई आधुनिक शिक्षा से शिक्षित होने पर भी अपने माता पिता के धार्मिक संस्कारों में संस्कारित हैं । तीनों भाई साथ ही में रहकर अपने परिवार की उन्नति एवं प्रतिष्ठा में सतत प्रयत्य शील हैं। इनका ओपसी प्रेम, सहयोग एवं मिलनसारिता सभी गृहस्थ के लिए अनुकरणीय है। बाटविया कुटुम्ब जैनधर्म की उच्च भावना से रंगा हुआ है । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । श्री इन्दुबहन सुखी एवं सम्पन्न परिवार में जन्म लेने पर भी उसका मन वैराग्व रंग में रंगा हुआ है । अपनी माता व्रजकुवर बह्न के सतत धार्मिक कार्यो का श्रीइन्दुमतीबहन पर अच्छा प्रभाव पडा फलस्वरूप आपने दीक्षा लेने का निश्चय किया । बाल्यावस्था में ही इसे संसार की अनित्यता का अनुभव होने लगा । संसारमें वे महा बुद्धिमान आत्माए धन्यवाद के पात्र है, जिनके निर्मल अन्तः करण में कारण के विना ही वैराग्य उत्पन्न होता है । श्री इन्दुवहन की इस वैराग्य वृत्ति से माता-पितो एवं भाई को कुछ विचलित कर दिया । क्योंकि परिवार में एक ही पुत्री होने के नाते समस्त परिवार की ममता इस पर अधिक थी । त्याग मार्ग पर चलने की इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं के मार्ग में सब से बड़ी बाधा होती है स्वजनों उसके प्रति मोह जो इस मोह के वशीभूत हो जाता है वह फिर इस मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता । लेकिन जो व्यक्ति इस मोह पर विजय प्राप्त कर लेता है वह सुख पूर्वक इस मार्ग पर प्रगति कर सकता है। शास्त्रकारों ने इस मोह को अनुक्ल उपसर्ग कहा है। प्रतिकूल उपसर्गों की अपेक्षा अनुकूल उपसगों पर विजय पाना जरा टेढी खीर हैं । विशेष पुण्योदय से परम प्रतापी आगमोद्धारक जैन दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज श्री एवं पं. रत्न मुनि श्री कन्हैयालालजी महाराज साहब के उपदेश से श्री इन्दुमती बहन की वैराग्य भावना अत्यन्त प्रबल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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