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________________ (2) प्रबन्धन : एक सतत प्रक्रिया (Management is a Continuous Process) प्रबन्धन एक प्रक्रिया है, जो कई कार्यांशों की एक श्रेणिबद्ध श्रृंखला है । प्रबन्धन के कर्त्तव्य अनवरत रूप से तब तक किए जाते हैं, जब तक कि उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाए । यद्यपि इसमें नियोजन करना प्रथम कर्त्तव्य होता है, लेकिन नियन्त्रण अन्तिम नहीं, क्योंकि नियन्त्रण से प्राप्त पुनःप्रेक्षण (Feedback) नियोजन में आवश्यक संशोधन कराता है। साथ ही ऐसा भी नहीं है कि नियोजनादि कर्त्तव्य क्रमशः ही किए जाएँ। अतः कहा जा सकता है कि प्रबन्धन एक सतत प्रक्रिया ,140 141 जैनदर्शन के अनुसार, अस्तित्व का प्रत्येक रूप अपने आप में एक सतत प्रक्रिया ही है, क्योंकि वह अस्तित्व को 'परिणामी - नित्य' मानता है । ' इस दृष्टि से जीवन भी एक सतत प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया का सम्यक् दिशा गमन ही प्रबन्धन है । ( 3 ) प्रबन्धन : एक उद्देश्यपरक प्रक्रिया (Management is a Goal-Oriented Process) प्रबन्धन का एकमात्र आधार होता है 'लक्ष्य' और केवल लक्ष्य के लिए प्रयास हो, यही प्रबन्धन की मुख्य नीति है । | 142 जैनदर्शन यह मानता है कि जीवन की प्रक्रिया को लक्ष्यात्मक बनाना चाहिए, क्योंकि लक्ष्यहीन प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जारी रहने पर भी अभीष्ट परिणामों की प्राप्ति नहीं हो पाती। आचार्यों ने इसे घानी के बैल के समान बताया है । सारांश यह है कि जीवन की प्रक्रिया घानी के बैल की तरह केवल गतिशील ही न हो, बल्कि वह एक सम्यक् दिशा में गतिशील हो । (4) प्रबन्धन : एक वैयक्तिक और सामाजिक प्रक्रिया (An Individual and a Social Process) प्रबन्धन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसाधन मानव है, जिसके बिना भौतिक संसाधनों का कोई मूल्य नहीं होता । अतः मानवीय - सम्बन्ध प्रबन्धन की कार्यकुशलता (Efficiency) और प्रभावशीलता (Effectiveness) को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। कहा जा सकता है कि प्रबन्धन की प्रक्रिया मुख्यतया मानव - केन्द्रित होती है। आधुनिक प्रबन्धन - शास्त्र में मानव की इस अहम भूमिका के कारण ही प्रबन्धन को एक सामाजिक प्रक्रिया माना गया है। 143 - 39 जहाँ तक जैनदर्शन का सवाल है, इसके अनुसार, व्यक्ति अपने आप में व्यक्ति और समाज दोनों होता है और इसीलिए प्रबन्धन सम्बन्धी उसके समग्र प्रयास वैयक्तिक के साथ-साथ समाज – केन्द्रित होने चाहिए। जैनदर्शन में कहा गया है कि व्यक्ति आत्महित भी करें और लोकहित भी, किन्तु लोकहित और आत्महित में विरोध हो, तो आत्महित ही करे, क्योंकि उसका यह भी मानना है कि व्यक्ति के विकास में ही समाज का विकास है, समाज तो एक अमूर्त कल्पना है, जो व्यक्ति के माध्यम से ही मूर्त रूप लेती । इसीलिए जैनदृष्टि में प्रबन्धन को एक वैयक्तिक और सामाजिक प्रक्रिया माना गया है । - Jain Education International अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ For Personal & Private Use Only 39 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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