SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 839
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'तत्त्व' शब्द तत्+त्व से बना है। 'तत्' का अर्थ है - वस्तु और 'त्व' का अर्थ है – स्वरूप । अतः वस्तु के स्वरूप को तत्त्व कहते हैं (तस्य भावः इति तत्त्वम्)।145 चूंकि वस्तु का स्वरूप वस्तु से सदैव अभिन्न होता है, अतः अभेद विवक्षा से 'तत्त्व' शब्द में वस्तु एवं उसके स्वरूप दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है। इसी दृष्टि से जैनाचार्यों ने नवतत्त्वों का विवेचन किया है146 - (क) जीवतत्त्व - ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्मा को जीवतत्त्व कहते हैं। जब यह जीव पर-निमित्त के शुभ आलम्बन से युक्त होता है, तब उसे शुभ भाव (पुण्य) होता है, जब अशुभ आलम्बन से युक्त होता है, तब उसे अशुभ भाव (पाप) होता है एवं जब स्वावलम्बी अर्थात् निज शुद्धस्वरूप का आलम्बन लेता है, तब उसे शुद्ध भाव (धर्म) होता है। (ख) अजीवतत्त्व - ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित पदार्थों को अजीवतत्त्व कहते हैं। इसमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल - इन पाँचों प्रकार के द्रव्यों का समावेश होता है। ये अजीव तत्त्व आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं। इन जीव-अजीव तत्त्वों का चिन्तन-मनन कर साधक यह निर्णय कर सकता है कि मैं आत्मा हूँ, जड़ नहीं। (ग) आस्रवतत्त्व - आत्मा में विकारी शुभाशुभ भावों का उत्पन्न होना भाव-आस्रव एवं तत्समय नवीन कर्मों का आत्मा की ओर आकर्षित होना द्रव्य आस्रव कहलाता है। (घ) बन्धतत्त्व – मोह, राग-द्वेष, अज्ञान, शुभाशुभ भावों में आत्मा का रुक जाना भाव-बन्ध तथा नवीन कर्मों का आत्मा से बन्ध जाना द्रव्य बन्ध है। आस्रव और बन्ध के दो उपभेद हैं - पुण्य एवं पाप। (ङ) पुण्यतत्त्व - दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभ भावों का होना भावपुण्य है और इसके निमित्त से कर्म का आत्मा से सम्बन्ध होना द्रव्यपुण्य है। (च) पापतत्त्व - मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य , अव्रत आदि अशुभ भावों का होना भावपाप है और इसके निमित्त से कर्म का आत्मा से सम्बन्ध होना द्रव्य पाप है। आस्रव, बन्ध, पुण्य एवं पाप आत्मा की स्वाभाविक नहीं, वैभाविक अवस्थाएँ हैं। ये अवस्थाएँ परपदार्थों से सम्बन्ध जोड़ने पर उत्पन्न होने वाले विकारी परिणाम हैं और परमार्थदृष्टि से साधक के लिए हेय रूप हैं, फिर भी पुण्य आस्रव एवं पुण्य बन्ध को पाप की तुलना में व्यवहार-दृष्टि से उपादेय कहा गया है। (छ) संवरतत्त्व – शुभाशुभ भावों के आस्रव का आत्मा के शुद्ध भावों द्वारा अंशतः निरोध होना भाव संवर है एवं तदनुसार नए कर्मों का आगमन अंशतः रुक जाना द्रव्य संवर है। 733 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy