SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 832
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग की सच्ची आस्था ही नहीं होती। दूसरे शब्दों में, अपने आत्मस्वरूप का सच्चा श्रद्धान ही नहीं हो पाता। यह मोक्षमार्ग की प्रथम ग्रन्थि है, जिसका छेदन किए बिना जीव का मोक्षमार्ग प्रारम्भ ही नहीं होता। (ख) चारित्रमोह – यह आत्मा को सम्यक् आचरण करने से भ्रमित करता है। इसके प्रभाव से आत्मा शुभाशुभ भावों से ऊपर उठकर शुद्ध भावों अर्थात् ज्ञाता-दृष्टाभाव को प्राप्त नहीं हो पाती। इसी कारण राग-द्वेष एवं कषायों का क्षय नहीं हो पाता और सहज स्वाभाविक वीतरागदशा प्रकट नहीं हो पाती। इन दर्शनमोह एवं चारित्रमोह से मुक्ति का उपाय करना ही मोक्षमार्ग है। दर्शनमोह से मुक्ति का अर्थ है – आत्मबोध की प्राप्ति करना एवं चारित्रमोह से मुक्ति का अभिप्राय है - वीतरागता की प्राप्ति करना। 124 इन दोनों में भी पहले दर्शनमोह और फिर चारित्रमोह की निवृत्ति से ही सम्यक् मोक्षमार्ग बनता है। अतः पहले आत्मबोध की प्राप्ति तथा बाद में कषायमुक्ति या वीतरागता का प्रयत्न आध्यात्मिक जीवन-प्रबन्धन की सही दिशा है। इन दर्शनमोह एवं चारित्रमोह पर विजय प्राप्त करने के लिए जैनाचार्यों ने त्रिविध साधना-मार्ग का विधान किया है। इसके तीन अंग हैं – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों की एकता से ही मोक्षमार्ग का निर्माण होता है।125 इनमें से एक भी न हो, तो मोक्ष का उपाय असम्भव है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती।12 ___ अब, यह आवश्यक होगा कि हम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की अवधारणा को स्पष्टतया समझें। (5) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का स्वरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को 'रत्नत्रय' कहा गया है और इसे जैनाचार्यों ने भिन्न-भिन्न नयों (दृष्टिकोणों) से समझाया है, जो इस प्रकार हैं17 - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र व्यवहार नवतत्त्वों (पदार्थ) का सम्यक् नवतत्त्वों (पदार्थ) का सम्यक् अशुभ से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति श्रद्धान बोध निश्चय परद्रव्यों से भिन्न आत्मा का सम्यक परद्रव्यों से भिन्न आत्मा का शुभ-अशुभ से निवृत्ति, शुद्ध में नय श्रद्धान (आत्म-श्रद्धान) सम्यक् बोध (आत्म-ज्ञान) प्रवृत्ति (आत्म-स्थिरता) नय (क) सम्यग्दर्शन जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि सम्यग्दर्शन आत्मा के 'दर्शन' (श्रद्धा) नामक गुण की स्वभाव पर्याय है। दर्शन गुण का सम्बन्ध किसी विषय या वस्तु के बारे में मान्यता, दृष्टिकोण, आस्था, श्रद्धा , जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 726 30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy