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________________ 13.3.4 चतुर्थ वर्गीकरण : कषायों के आधार पर आध्यात्मिक जीवन के विकास को लेकर अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी. प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन - इन चार कषायों की सत्ता के आधार पर भी साधक के पाँच स्तर बनाए जा सकते हैं - (1) अनन्तानुबन्धी कषाय सहित आत्मा - यह आध्यात्मिक साधना का सबसे निकृष्ट स्तर है, जिसमें आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय से युक्त होती है। अनन्त संसार-परिभ्रमण का कारण होने से जैनाचार्यों ने मिथ्यात्व को 'अनन्त' कहा है और जो कषाय अनन्त की 'अनुबन्धी' हो अर्थात् मिथ्यात्व का अनुसरण करने वाली हो, उसे 'अनन्तानुबन्धी कषाय' कहा है।64 अनन्तानुबन्धी कषाय का अर्थ है - जीवन में तीव्र कषायजन्य क्रिया-प्रतिक्रिया चलते रहना। इस कषाय के चार भेद हैं – क्रोध, मान , माया एवं लोभ । इनकी व्याख्या इस प्रकार है - ★ अनन्तानुबन्धी क्रोध – आत्मा के शुद्ध स्वरूप की अरुचि होना। ★ अनन्तानुबन्धी मान – 'मैं पर का कुछ कर सकता हूँ' - ऐसी मान्यता पर अहंकार होना। ★ अनन्तानुबन्धी माया - ‘अपना स्वाधीन एवं शाश्वत् आत्मस्वरूप समझ में नहीं आता' - ऐसी वक्रता के साथ अपनी समझ-शक्ति को छिपाकर आत्मा (स्वयं) को ठगना। ★ अनन्तानुबन्धी लोभ – पुण्य-पाप के विकारी भावों से और पर-पदार्थों से लाभ मानकर अपनी विकारीदशा की वृद्धि करना। इस भूमिका में साधक अपने शुद्ध स्वरूप का आस्वादन लेने से वंचित रहता है और उसकी अधिकतम सीमा शुभ भावों तक ही रहती है। यह भी ज्ञातव्य है कि अनन्तानुबन्धी कषाय जहाँ रहती है, वहाँ शेष तीन कषाय तो रहती ही हैं। (2) अनन्तानुबन्धी कषायरहित आत्मा - इस स्तर पर पहुँचकर साधक अनन्तानुबन्धी कषाय पर विजय प्राप्त करके भी अप्रत्याख्यानी कषाय से पराजित होता रहता है। इस अप्रत्याख्यानी कषाय के कारण साधक अल्प भी प्रत्याख्यान अर्थात् विरति को प्राप्त करने में असमर्थ होता है। इस प्रकार, इस अवस्था में रहता हुआ साधक सत्य को सत्यरूप में स्वीकार तो करता है, किन्तु सत्य का अनकरण कर जीवन को संयमित नहीं कर पाता। अप्रत्याख्यानी कषाय के भी चार भेद हैं - क्रोध मान, माया और लोभ । यह साधक अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव तो करता है, जिससे उसका यथार्थ मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है, परन्तु अप्रत्याख्यानी कषायवश वह साधना की दिशा में गतिशील नहीं हो पाता। ज्ञातव्य है कि अप्रत्याख्यानी कषाय जहाँ होती है, वहाँ शेष दो कषाय तो नियमपूर्वक होती ही हैं। (3) अप्रत्याख्यानी कषायरहित आत्मा - इस तृतीय स्तर में साधक की अप्रत्याख्यानी कषाय क्षय-उपशम को प्राप्त होती है, जिससे साधक की अनासक्ति में अभिवृद्धि होती है और वह आंशिक संयम (अणुव्रत) को ग्रहण करता है, परन्तु प्रत्याख्यानी कषाय का सद्भाव होने से साधक पूर्ण संयम जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 710 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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