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________________ 미 Jain Education International 해 मन्दतम तीव्रतम आगमिक साहित्य का विशेष अध्ययन द्रव्यात्मक धर्मकृत्य, जैसे - द्रव्यपूजादि से अशुभ (पाप) कार्यों, सांसारिक सम्बन्धों/ करना, स्व–पर उपयोगी ज्ञान का निवृत्ति लेना एवं भावात्मक धर्मकृत्य जैसे - संस्कारों/प्रवृत्तियों आदि का पूर्ण रूप से आदान-प्रदान करना एवं धर्मोपदेश भावपूजादि में नियमतः प्रवृत्त होना, संकल्पपूर्वक परित्याग करना, सूक्ष्म दोषों का देना, भेदज्ञान प्रेरक शास्त्राभ्यास ध्यानादि की विशेष भूमिका प्राप्त करना, सेवन हो जाने पर उनका खेद करना, करना, आत्मस्थिरता की अभिवृद्धि आलम्बनात्मक क्रियाओं से निरालम्बनात्मक पंचमहाव्रत अंगीकार करना, अष्टप्रवचन माता करना, आत्मबोध (स्वानुभूति) की क्रियाओं की ओर बढ़ना, विशेष रूप से का पालन करना, दशविध धर्मों का पालन निरन्तरता होवे ऐसे चिन्तन-मनन, स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि में रत रहना करना, परिषह-जय का यथाशक्ति प्रयत्न अनुप्रेक्षा, ध्यान आदि का विशेष प्रयत्न इत्यादि। करना, समतापूर्वक जीना, शुभाशुभभाव/ करना इत्यादि। आसक्ति/ राग-द्वेष आदि आस्रवों से निवृत्त एवं संवर-निर्जरा में प्रवृत्त होना। पं कषाय पूर्ण पूर्णज्ञान अर्थात् केवलज्ञान का प्रकट पूर्णतया आत्मलीन हो जाना, जिसके पूर्ण समत्व भाव में स्थित होकर परमानन्द में च शून्य होना, जिसके पश्चात् बाह्य ज्ञानोपासना पश्चात् बाह्य क्रियोपासना की आवश्यकता लीन हो जाना। की आवश्यकता शेष नहीं रहती। शेष नहीं रहती। For Personal & Private Use Only धार्मिक व्यवहार–प्रबन्धन के क्रमिक विकास हेतु जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह उपर्युक्त तालिकानुसार अपने स्तर का चयन स्वयं करे और निरन्तर उत्तरवर्ती स्तरों पर पहुँचने का प्रयत्न करे। =====< >===== www.jainelibrary.org जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 692
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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