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________________ होता है, अपितु भविष्य के दोषों का भी संकल्पपूर्वक यथाशक्ति त्याग कर देता है। वस्तुतः, प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान आदि दोष-सुधार की प्रक्रिया है, इससे भावों का परिष्कार होता है। इसी प्रकार अन्य प्रचलित क्रियात्मक साधनों का भी सम्यक् प्रयोग करता हुआ जीवन-प्रबन्धक नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों का विकास कर सकता है। 12.6.4 आचरणात्मक धर्म का सम्यक निर्वाह करना धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन की अन्तिम कसौटी आचरणात्मक धर्म है। आचरणात्मक धर्म के बिना उपासनात्मक धर्म भी अपूर्ण है। उपासनात्मक धर्म तो केवल साधन है, जिसका साध्य आचरणात्मक धर्म है। व्यक्ति के धर्म की परीक्षा चूँकि प्रतिकूल परिस्थितियों में ही होती है, अतः आचरणात्मक धर्म हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बने, ऐसा प्रयत्न निरन्तर होना चाहिए। जैन-परम्परा में इसीलिए आचार-धर्म के सम्यक् परिपालन हेतु क्रम से निम्नलिखित मापदण्ड निर्धारित किए गए हैं - ★ सप्त व्यसनों का त्याग करना103 - 1) शिकार 2) जुआ 3) चोरी 4) मांसभक्षण 5) मद्यपान 6) वेश्यागमन 7) परस्त्रीगमन ★ अभक्ष्य और अकल्पनीय वस्तुओं के सेवन का त्याग करना104 - सांयोगिक महाविगई फल टेटा तुच्छ चीजें अनंतकाय 1) द्विदल 5) मांस 9) बहुबीज 13) बरगद के फल 18) बर्फ 22) अनंतकाय 2) चलितरस 6) मदिरा 10) बैंगन 14) पीपल के फल 19) ओले 3) अकल्प्य आचार 7) मधु (शहद) 11) तुच्छफल 15) पिलंखण के फल 20) मिट्टी 4) रात्रिभोजन 8) मक्खन 12) अनजान फल 16) उदुंबर के फल 21) जहर ___17) गूलर के फल ★ शिष्टाचार के गुणों का पालन करना - 1) लोकापवाद का भय होना। 10) स्वीकृत कार्य को पूर्ण करना। 2) दीन-दुःखियों के प्रति सहयोग भावना होना। 11) कुलधर्म का पालन करना। 3) कृतज्ञ होना। 12) अर्थ का अपव्यय नहीं करना। 4) निन्दा का परित्याग करना। 13) आवश्यक कार्यों हेतु प्रयत्न करना। 5) विज्ञजनों की प्रशंसा करना। 14) श्रेष्ठ कार्यों में संलग्न रहना। 6) विपत्ति में धैर्य रखना। 15) प्रमाद का परिहार करना। 7) वैभव-प्राप्ति होने पर भी विनम्र रहना। 16) लोकाचार का पालन करना। 8) संयमित वाणी-व्यवहार करना। 17) अनुचित कार्यों का त्याग करना। 9) कदाग्रह और विरोध नहीं करना। 18) निम्नस्तरीय कार्यों से सदा बचना। 34 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 686 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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