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________________ 12.6 धार्मिक-व्यवहार प्रबन्धन का प्रायोगिक पक्ष धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लिए जितना महत्त्व सैद्धान्तिक पक्ष का है, उतना ही प्रायोगिक पक्ष का भी मानना चाहिए। प्रायोगिक पक्ष के माध्यम से ही वे सूत्र प्राप्त होते हैं, जिन्हें जीवन-व्यवहार में आचरित कर व्यक्ति धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। वस्तुतः, प्रायोगिक पक्ष को आचरण में अपनाए बिना सैद्धान्तिक पक्ष से प्राप्त ज्ञान केवल सूचनात्मक ही रह जाता है, उसकी जीवन में कोई उपयोगिता नहीं रहती। कहा भी गया है - जैसे करोड़ो दीपक जलाने पर भी अन्धे व्यक्ति को प्रकाश नहीं मिल सकता, वैसे ही प्राप्त ज्ञान को आचरण में लाए बिना जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। धार्मिक व्यवहारों का सम्यक् प्रबन्धन करने हेतु जिस प्रक्रिया को जीवन-व्यवहार में लाना होगा, वह इस प्रकार है - 12.6.1 धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन का उद्देश्य निर्माण करना सर्वप्रथम इस चेतना को जाग्रत करना आवश्यक है कि 'मुझे जीवन में धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन करना ही है।' यह प्रबन्धन उसी प्रकार आवश्यक है, जिस प्रकार जीवन में व्यापार, कार्यालय आदि का प्रबन्धन आवश्यक है। इस हेतु बारम्बार सम्यक् धार्मिक-व्यवहारों की जीवन में क्या उपयोगिता है, इसका चिन्तन करना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें अध्याय में गौतम स्वामी के माध्यम से त्र को धर्माचरण के लिए सजग होने का बारम्बार उपदेश दिया गया है। कभी जीवन की नश्वरता, अस्थिरता, दुर्लभता आदि को देखकर, तो कभी इन्द्रिय-बल की क्षीणता, बाधक तत्त्वों की त्याज्यता आदि को समझकर अखण्ड रूप से धर्म में रत रहने का निर्देश दिया गया है। बहत्कल्पभाष्य में भी कहा गया है – 'धर्माचरण करने में शीघ्रता करनी चाहिए, क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि जीवन का क्षण-क्षण विघ्नों से भरा है। इसमें एक सन्ध्या की भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।' वस्तुतः यह चेतना ही धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन की दिशा में आगे बढ़ने का बल प्रदान करती है। 12.6.2 धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन के सही लक्ष्यों एवं नीतियों का निर्माण करना जैनशास्त्रों में दो बातों के निर्धारण को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है - लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग । धार्मिक व्यवहारों के सम्यक् प्रबन्धन के लिए इन दोनों के सम्बन्ध में सजगता होना अत्यावश्यक है, जैसे धागे में पिरोई हुई सूई गुम नहीं होती, वैसे ही सम्यक् लक्ष्य एवं उसके मार्ग को जानने वाला साधक उन्मार्गगामी नहीं होता। ___ उपाध्याय यशोविजयजी ने साफ शब्दों में कहा है कि धार्मिक अनुष्ठान स्वयं अपने आप में शुद्ध ही होता है, किन्तु अनुष्ठान करने वाले साधकों का आशय एवं अध्यवसाय अलग-अलग होने से वह पाँच प्रकार का हो जाता है - 681 अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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