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________________ (3) धर्म निषेधात्मक भी है एवं विधेयात्मक भी है धार्मिक-व्यवहार के सम्यक् प्रबन्धन हेतु धर्म के पुनः दो पक्ष हैं - निषेधात्मक धर्म एवं विधेयात्मक धर्म। निषेधात्मक धर्म उन साधनों (कारकों) के प्रयोग का निषेध करता है, जो हमारे नैतिक-आध्यात्मिक विकास में बाधक हों, जैसे – सप्तव्यसन, तामसिक-गरिष्ठ भोजन, देश-विरुद्ध कार्य, क्रोधादि मनोवृत्तियाँ इत्यादि। विधेयात्मक धर्म उन साधनों के प्रयोग हेतु प्रेरित करता है, जो नैतिक-आध्यात्मिक विकास में सहायक हों, जैसे - धर्म-श्रवण, आत्म-चिन्तन, अर्हद्-भक्ति, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, ध्यान इत्यादि। धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन की समग्रता के लिए इन दोनों धर्मों का पारस्परिक समन्वय अत्यावश्यक है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसीलिए सम्यक् धर्ममार्ग की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि साधक को जहाँ एक ओर असत्प्रवृत्तियों का त्याग करना चाहिए, वहीं दूसरी ओर सत्प्रवृत्तियों का ग्रहण भी करना चाहिए। धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन के इच्छुक साधक के लिए निम्न बिन्दु विचारणीय हैं - * यदि वह निषेधात्मक साधनों का परित्याग किए बिना विधेयात्मक साधनों का प्रयोग करता है, तो उसे सफलता नहीं मिल सकती, क्योंकि उसकी उचित पात्रता ही नहीं होती। आध्यात्मिक सन्त देवचंद्रजी ने कहा भी है - प्रीति अनंती पर थकी, जे तोड़े हो ते जोड़े एह। परम पुरूषथी रागता, एकत्वता हो दाखी गुण गेह।। अर्थात् भक्त भगवान् ऋषभदेवजी से प्रीति तो करना चाहता है, किन्तु सच्ची प्रीति नहीं कर पाता। कारण यह है कि अनन्तकाल से पर-पदार्थों से हो रही प्रीति को तोड़े बिना परमात्मा से प्रीति नहीं हो सकती। वस्तुतः, जो पर-प्रीति का त्यागकर परमात्म-प्रीति का प्रयत्न करे, उसमें तन्मय हो जाए, वह स्वयं सद्गुणों का भण्डार बन जाएगा। आशय यह है कि निषेधात्मक धर्म का पालन किए बिना विधेयात्मक धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती, उदाहरणार्थ - • महाबल कुमार (मल्लिनाथ भगवान् का पूर्व भव) ने मुनि अवस्था में अनशन तप किया, किन्तु सूक्ष्म माया का त्याग नहीं हो सका। • कोई व्यक्ति सत्संग में जाने के बावजूद भी लाभान्वित नहीं होता, क्योंकि वहाँ भी उसे धूम्रपान की तलब सताती है। ★ यदि वह केवल निषेधात्मक धर्म को ही पूर्ण मान लेता है, तो भी उसका धर्म समीचीन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विधेयात्मक धर्म के अभाव में वह उचित नैतिक एवं आध्यात्मिक सद्गुणों का विकास नहीं कर सकता, उदाहरणार्थ - • कमठ ने संसार तो छोड़ा, पर सद्धर्म को स्वीकार नहीं किया। 22 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 674 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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