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उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर हमें भोगोपभोग की प्रक्रिया से हो रही बहुआयामी हानियों पर दृष्टि डालकर यह निर्णय करना चाहिए कि कौन-से भोग तीव्र हानिकारक हैं और कौन-से मन्द | जैनदृष्टि की यह मान्यता है कि हमें उन भोगोपभोगों का पहले निषेध करना चाहिए, जिनके परिणाम अधिक नुकसानकारी हैं। उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति चमड़े के जूते भी पहन सकता है और फोम के भी। यहाँ नैतिक मूल्यों के आधार पर उसे चमड़े के जूतों का त्याग करके फोम के जूतों को स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार समय, धन, आदतों एवं सबसे महत्त्वपूर्ण अंतरंग परिणामों के आधार पर उसे प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण करना चाहिए ।
11.6.2 भोगोपभोग– प्रबन्धन के लिए आवश्यक और अनावश्यक वस्तुओं का सम्यक् निर्णय करना
पूर्व में हमने भोगोपभोग के प्रति जो समीचीन दृष्टिकोण बनाया है और वस्तुओं का वर्गीकरण किया है, उस आधार पर यह आवश्यक है कि हम वस्तुओं की उचितता एवं अनुचितता का निर्धारण करें ।
जैनदर्शन में उचित एवं अनुचित के निर्णय को पूर्ण प्राथमिकता प्रदान की गई है। जैनाचार्यों ने अनुचित कृत्यों को 'अनर्थदण्ड' कहकर उनका निषेध किया है और उचित कृत्यों को 'आवश्यक' कहकर उन्हें अवश्यकरणीय माना है ।
अपनी इच्छाओं अथवा आदतों के आधार पर नहीं, किन्तु सम्यग्ज्ञान के आधार पर भोगोपभोग की सामग्रियों के तीन विभाग किए जा सकते हैं।
1) अत्यावश्यक भोगोपभोग वे भोगोपभोग, जिनके संस्कार अतिगाढ़ हैं एवं जिन्हें हम न तो छोड़ सकते हैं और न ही सीमित कर सकते हैं।
2 ) आवश्यक भोगोपभोग
वे भोगोपभोग, जिन्हें हम छोड़ तो नहीं सकते, किन्तु मर्यादित (सीमित)
अवश्य कर सकते हैं।
3) अनावश्यक भोगोपभोग
वे भोगोपभोग, जिन्हें हम सीमित ही नहीं, अपितु पूर्णतया छोड़ भी
सकते हैं।
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इस प्रकार, उपर्युक्त तीनों विभागों के आधार पर हमें उचित चयन प्रक्रिया (Selection Process) अपनाकर 'अत्यावश्यक भोगोपभोगों' को करते हुए भी उनके प्रति खेद निंदा, गर्हा आदि भाव रखना, 'आवश्यक भोगोपभोगों' का उचित सीमाकरण करना तथा 'अनावश्यक भोगोपभोगों' का पूर्ण त्याग करना चाहिए । भोगोपभोगों को क्रमशः मर्यादित करने की साधना करते हुए वर्त्तमान जो अत्यावश्यक हैं, उन्हें आवश्यक और जो आवश्यक हैं, उन्हें अनावश्यक की श्रेणी में लाकर त्याग करने का प्रयत्न करना चाहिए । यही भोगोपभोग - प्रबन्धन का प्रायोगिक रूप है ।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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