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(2) पुण्य कर्म का विशिष्ट उदय - यह मनुष्य की कर्म-आधारित योग्यता है। नारक और तिर्यंच गतियों के प्राणी पापकर्मों के तीव्र उदय से पीड़ित होते हैं और इसीलिए जीवन-प्रबन्धन का विचार करना भी उनके लिए अत्यन्त कठिन है, किन्तु सामान्यतया मनुष्य का इतना पुण्य का उदय तो होता ही है कि वह जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया को जीवन में उतार सके। (3) पर्याप्तियाँ - जीव उत्पत्ति-स्थान पर पहुँचकर अन्तर्मुहूर्त में जिन पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है, उनसे आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा तथा मन की संरचना होती है और पुद्गल को आहारादि रूप में परिणत करने की इस शक्ति को ही पर्याप्ति कहते हैं। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह आहारादि छहों प्रकार की पर्याप्तियों को प्राप्त करने में समर्थ होता है। वस्तुतः, इन पर्याप्तियों का मिलना ही उसके जीवन-प्रबन्धन की योग्यता का प्राथमिक आधार है। (4) इन्द्रियाँ - मनुष्य में पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं, जिनसे वह जीवन निर्वाह एवं आत्म-कल्याण हेतु उपयोगी ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। यह ऐन्द्रिक योग्यता कितने ही तिर्यंचों में नहीं पाई जाती। (5) मन – मनुष्य में विकसित मन होता है, जिससे वह चिन्तन, मनन, निर्णय, विचार एवं कल्पना आदि करने में समर्थ होता है। वह सभी प्रकार से अपने विकास के बारे में सोच सकता है। यह विकसित मन की योग्यता भी तिर्यंचों में नहीं पाई जाती। (6) वाणी - मनुष्य में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने की भाषिक-शक्ति होती है, जिससे वह अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक दोनों प्रकार की भाषाओं का उपयोग करने में सक्षम होता है। उसके पास अनेक भाषाएँ एवं बोलियाँ हैं तथा इनका प्रयोग करने के लिए समृद्ध शब्दकोश भी है। तिर्यंच गति के पशु-पक्षी आदि में इस शक्ति का विकास नहींवत् होता है। (7) कर्मेन्द्रियाँ - मनुष्य में कार्य करने की विशिष्ट योग्यताएँ होती हैं। वह हाथ-पैर के माध्यम से रखना, उठाना, फेंकना, गिराना, चलना, रूकना, खाना, पीना आदि विविध कार्यों को आसानी से करने में समर्थ होता है। (8) दैहिक संरचना - मनुष्य के पास एक अत्यन्त जटिल (Complex), किन्तु अतिविकसित दैहिक संरचना है। आधुनिक आयुर्विज्ञान के अनुसार, मनुष्य एक बहुकोशिकीय संरचना (Multicellular Structure) वाला प्राणी है, जो संसार के समस्त जीवों में सबसे अधिक विकसित है। डार्विन की विकासवादी मान्यता भी यह मानती है कि अमीबा से जीवन का विकास प्रारम्भ हुआ और विभिन्न चरणों से गुजरकर मनुष्य के रूप में सर्वाधिक विकसित अवस्था को प्राप्त हुआ। मनुष्य की दैहिक संरचना का विस्तृत विवरण हमें तंदूलवैचारिक ग्रन्थ में मिलता है। (७) दीर्घायु – मनुष्य के पास सामान्यतया इतनी जीवनावधि होती है कि वह अपना जीवन-प्रबन्धन सहजता से कर सके। यह योग्यता अधिकांश तिर्यंच प्राणियों में नहीं होती।
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अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ
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