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________________ 11.5 जैनआचारमीमांसा के आधार पर भोगोपभोग-प्रबन्धन भोगोपभोग की समस्याओं एवं दुष्परिणामों की चर्चा करने के पश्चात् उनके समाधान को खोजना आवश्यक है, इस हेतु जैनआचारशास्त्र अर्थात् जीवन-प्रबन्धन शास्त्र के जीवन-उपयोगी नीति-निर्देश हमारे मुख्य आधार होंगे। जैनआचारशास्त्र का प्रबन्धन सम्बन्धी एक प्रमुख सूत्र है कि सही जानना, सही मानना और सही जीना ही लक्ष्य प्राप्ति का सही उपाय है। इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम भोगोपभोग-प्रबन्धन के सिद्धान्तों को जानें और मानें, फिर उनका जीवन में प्रयोग करें। अतः भोगोपभोग-प्रबन्धन की प्रक्रिया को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं – प्रथम सैद्धान्तिक पक्ष है, जिसके आधार पर हम विवेकपूर्वक विश्लेषण करके सम्यक दृष्टिकोण का निर्माण किया जा सकता है और द्वितीय प्रायोगिक पक्ष है, जिसके आधार पर अनावश्यक भोगोपभोग से निवृत्ति और आवश्यक भोगोपभोग में प्रवृत्ति की जा सकती है। 11.5.1 जैनआचारमीमांसा के आधार पर भोगोपभोग-प्रबन्धन का सैद्धान्तिक पक्ष भोगोपभोग-प्रबन्धन के लिए सबसे पहले भोगोपभोग के प्रति सम्यक दृष्टिकोण का निर्माण करना आवश्यक है। इस हेतु जीवन-प्रबन्धक को अपने संकुचित एवं भ्रमित दृष्टिकोण को छोड़कर अनेकान्त-दृष्टि से सत्य को ग्रहण करना होगा। आज विडम्बना यही है कि व्यक्ति ने भोगोपभोग के प्रति संकुचित दृष्टिकोण अपनाकर उसे केवल बाह्य ऐन्द्रिक विषयों से सम्बन्धित मान लिया है, किन्तु यह उचित नहीं है। जैनदृष्टि के आधार पर देखें, तो भोगोपभोग के विषय अंतरंग आत्मा एवं बाह्य जगत् दोनों से सम्बन्धित होते हैं और इसी आधार पर भोगोपभोग के निम्न भेद किए जा सकते हैं-56 __ वस्तुतः जैनदर्शन यह मानता है कि भोग एवं उपभोग तो -- प्रत्येक आत्मा का अभिन्न गुण है और आत्मा की सभी अवस्थाओं में बाह्यविषयक 16 किसी न किसी प्रकार का भोग एवं उपभोग तो होता ही रहता है। | अशुद्धभोग | शुद्धभोग । - जब यह भोगोपभोग कामनाओं का विसर्जन करते हुए आत्मरमणता अशुभभाग] शुभभाग के रूप में होता है, तब इसे शुद्ध-भोगोपभोग कहा जाता है। जैनाचार्यों की दृष्टि में यह भोगोपभोग ही सर्वोत्तम है, सर्वथा आचरणीय है और एक अत्यन्त, अतिशययुक्त, स्वाधीन एवं अव्याबाध आत्मसुख की प्राप्ति कराने वाला है। संक्षेप में कहें, तो यह वह अवस्था है, जिसमें राग-द्वेष और तज्जन्य इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं और आत्मा स्वयं की निर्मल पर्यायों (आत्म–शान्ति) का भोग तथा स्वयं के ही ज्ञानादि गुणों का उपभोग करती है। इस शुद्ध भोगोपभोग का गहन चिन्तन-मनन सहित प्रबन्धनविषयक चर्चा अध्याय तेरहवें में की जाएगी। जब यह भोगोपभोग आत्मा के बजाय पाँच इन्द्रियों और मन के विषयों में पर-रमणता रूप होता जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 16 628 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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