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(2) गति के आधार पर
पुनः जैनाचार्यों ने ‘गति' के आधार पर संसारी जीवन के चार भेद किए हैं – नारक, तिर्यंच, देव एवं मनुष्य। इनमें से नरकों में जन्म लेने वाले जीव नारक कहलाते हैं, जो हिंसादि असत्कार्यों में निरत रहते हैं तथा जीवनपर्यन्त दैविक, शारीरिक, मानसिक, क्षेत्रीय एवं परस्पर-उत्पन्न दुःखों का अनुभव करते रहते हैं। दूसरे तिर्यच होते हैं, जो वनस्पति आदि एकेन्द्रिय, कीट-पतंग आदि विकलेन्द्रिय और जलचर, थलचर, नभचर आदि पंचेन्द्रिय के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं। धवला में कहा गया है कि जो मन-वचन-काया की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहार आदि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनमें पाशविक प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे तिर्यंच कहलाते हैं।59 इन्हें जीवनपर्यन्त ताड़ना, तर्जना, छेदन, भेदन, बन्धन, रोग, शोक, भूख, प्यास, बोझ, वेदना आदि दःखों का सामना करना पड़ता है। तीसरे देव होते हैं, जो नाना प्रकार की बाह्य विभूतियों से युक्त होते हैं, और द्वीप-समुद्र आदि स्थानों पर जाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं। इस जीवन में अपार ऐश्वर्य, विशिष्ट ऋद्धि, देवांगना आदि भोग-सामग्री, अतुलनीय शरीर, समृद्ध ज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, फिर भी प्रायः जीवन कभी भोगविलासिता में लीन होकर और कभी विषय-तृष्णा के मानसिक दुःखों से पीड़ित होकर यूँ ही बीत जाता है। जैनाचार्यों के अनुसार, इन तीनों जीवनरूपों में जीवन-प्रबन्धन की सम्भावनाएँ अत्यल्प हैं, क्योंकि इनका जीवन मूल-प्रवृत्तियों (Basic Instincts/संज्ञा) से संचालित होता है और इनके स्वभाव में परिवर्तन आना असम्भव प्रायः होता है। चौथे मनुष्य होते हैं, जो मन के द्वारा उचित-अनुचित विचार या मनन करते हैं, कला, शिल्प आदि में कुशल होते हैं, मन के कारण उत्कृष्ट कहलाते हैं और मनु की सन्तान होते हैं। ये मनुष्य जन्म के आधार पर दो प्रकार के होते हैं - सम्मूर्छिमज (Asexual) एवं गर्भज (Sexual)। जो मनुष्य गर्भ में उत्पन्न न होकर विष्टा, मूत्र, कफ, वमन, नासिका-मल, मृत देह, स्त्री-पुरूष सम्भोग, पित्त, मवाद, खून, वीर्य, सूखकर पुनः गीले हुए वीर्य, गटर एवं अन्य सब अशुचि स्थान - इन चौदह प्रकार के स्थानों में उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूर्छिमज कहलाते हैं। ये मनरहित और अविकसित रहकर अन्तर्मुहूर्त मात्र में मर जाते हैं। दूसरे, गर्भ में उत्पन्न होने वाले मनुष्य गर्भज कहलाते हैं। 65 ये नियमतः मनसहित ही होते हैं। 66 जीवन-प्रबन्धन की दृष्टि से देखें, तो एकमात्र गर्भज मनुष्य ही जीवन के विकास के लिए चिन्तन-मनन करते हुए सम्यक् उद्देश्य का निर्धारण कर सकते हैं और अपने सामर्थ्य का सम्यक् प्रयोग कर निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति भी कर सकते हैं। (3) स्थावर एवं त्रस के आधार पर
जैनाचार्यों ने गमनागमन की योग्यता के आधार पर भी संसारी जीवन के दो भेद किए हैं - स्थावर एवं त्रस।" वह जीवन, जिसमें जीने वाले प्राणी समझपूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान तक गमनागमन करने में असमर्थ होते हैं, स्थावर कहलाता है। इसमें मूलतः तिर्यंच और उसमें भी
अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ
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