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________________ ★धन का एक भाग व्यापार के लिए लगता था। ★ एक भाग घरेलू व्यवस्था, अतिथि-सेवा तथा दान आदि कार्यों के लिए रखा जाता था। ★ एक भाग अपने आश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण के लिए होता था। ★ एक भाग भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जाता था। भगवान् महावीर के प्रमुख श्रावक आनन्द ने अपनी सम्पत्ति का न केवल परिमाण किया, बल्कि उनका तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर सम्यक् नियोजन भी किया - चार करोड़ सोनैया (प्राचीन मुद्रा) व्यापार में लगाई, चार करोड़ घर, भूमि, आभूषण, जायदाद आदि में लगाई तथा चार करोड़ भूमि में सुरक्षित रखी। दीघनिकाय में श्री गौतम बुद्ध ने भी एक सुन्दर व्यवस्था बताई है190★ गृहस्थ को धन का एक भाग स्वयं के खर्च के लिए उपयोग करना चाहिए। ★ दो भाग व्यापार में लगाना चाहिए। ★ एक भाग भविष्य के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। इस प्रकार, यह द्योतित होता है कि अर्थ-चक्र के उचित सन्तुलन हेतु महापुरूषों ने देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर सदुपदेश दिए हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी व्यक्ति को ग्रहणादि प्रक्रियाओं में उचित सन्तुलन स्थापित करने की आवश्यकता है। यद्यपि आज की अर्थ-व्यवस्था में मुद्रास्फीति की दर (Inflation Rate) बहुत ज्यादा है (लगभग 8-10%) जिससे महँगाई भी निरन्तर बढ़ रही है, फिर भी दूरदर्शितापूर्वक अपनी आवश्यकताओं को मर्यादित करते हुए सन्तुलित अर्थ-नियोजन (Financial Planning) करने की अतीव आवश्यकता है, तभी व्यक्ति जीवन को धर्मानुकूल एवं मोक्षानुकूल कर सकेगा। इस प्रकार, अर्थ के अतिरेक एवं अल्पता से बचते हुए अर्थ प्रक्रियाओं का सम्यक् प्रबन्धन करना नितान्त जरुरी है। इस हेतु अर्थ-प्रबन्धक को ग्रहण, सुरक्षा, उपभोग एवं संग्रह - इन चारों अर्थ-प्रक्रियाओं का पृथक्-पृथक् प्रबन्धन करना चाहिए, इनका वर्णन आगे किया जा रहा है। 1) ग्रहण-प्रबन्धन जीवन में वस्तु की उपयोगिता का सम्यक् विश्लेषण एवं निर्णय करके वस्तु को ग्रहण करना ही ग्रहण-प्रबन्धन है। इसके अभाव में अविवेकपूर्ण ढंग से गृहीत वस्तु बोझ रूप हो जाती है। चाहे धन का उपार्जन हो, वस्तु का क्रय हो अथवा उपहार की स्वीकृति हो, अक्सर व्यक्ति के मन में वास्तविक आवश्यकता की समझ का अभाव रहता है और प्रलोभन में मन ललचा जाता है। आचारांगसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि साधक को मात्रज्ञ होना चाहिए अर्थात् ग्रहण की जाने वाली वस्तु की मात्रा का विवेक होना चाहिए।191 58 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 586 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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