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★ जीवन का मूल-साध्य अर्थ नहीं, वरन् शान्ति है अर्थात् अर्थ गौण (Secondary) है और शान्ति मुख्य (Primary ) है ।
★ अर्थ सुख का साधन नहीं, वरन् संज्ञाओं की सन्तुष्टि के लिए विवशता मात्र है। दूसरे शब्दों में, अर्थ का अर्जन करना कर्त्तव्य नहीं, किन्तु कमजोरी है।
★ अर्थ की अभिलाषा आत्मा की वैभाविक परिणति है, जो मोहात्मक (भ्रामक ) दशा के कारण होती है, अतः जैसे-जैसे मोह कम (उपशम या क्षय) होता जाता है, वैसे-वैसे अर्थ - पुरूषार्थ का यह भ्रामक दायित्व - बोध भी घटता जाता है ।
स्वभाव दशा में स्थित आत्मा के लिए अर्थ अनावश्यक है और विभाव दशा में स्थित आत्मा को मोहवश अर्थ आवश्यक लगता है, किन्तु विभाव दशा में भी अर्थ का महत्त्व केवल साधन रूप में होना चाहिए, न कि साध्य रूप में।
★ सिर्फ अर्थ के लिए ही पुरूषार्थ करते रहना, यह एक विकृत मानसिकता है, ऐसा अर्थ अनुपयोगी ही रहता है एवं अन्ततः विनष्ट ही होता है, क्योंकि यहाँ अर्थ साधन नहीं, अपितु साध्य ही बन जाता है ।
★ बाह्य अर्थ का आकर्षण आभ्यन्तर अर्थ (आत्मा) में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारी भावों
'ऋद्धिः चित्तविकारिणी' ।
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को बढ़ाता है। कहा भी गया है। ★ यह अर्थ ही है, जो व्यक्ति को केन्द्र (प्रधानता) से दूर कर परिधि ( गौणता) की ओर धकेल देता
है ।
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★ अर्थ अधिक से अधिक केवल आवश्यकताओं की सन्तुष्टि का माध्यम हो सकता है, किन्तु वह
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अभ्युदय (धर्म) और निःश्रेयस् (मोक्ष) का हेतु नहीं बन सकता
★ अर्थ को भले ही कामनाओं की पूर्ति का साधन माना जाता है, फिर भी अर्थ में यह कमी है कि उसकी उपयोगिता सर्वदा, सर्वथा और सभी के लिए एक-सी नहीं होती ।
★ धर्म एवं मोक्ष से विरहित 'अर्थ' अनर्थ का मूल है, अशुभ है, विनाशी है एवं संसार - परिभ्रमण का कारण है।
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उपर्युक्त बिन्दुओं का यह निष्कर्ष है कि
1) अर्थ जीवन की वास्तविक आवश्यकता नहीं है, अतः अर्थ विरहित जीवन ही परम श्रेष्ठ है। 2) विभाव दशा में अर्थ की काल्पनिक आवश्यकता महसूस होती है, अतः उस स्थिति में 'अति' और 'अल्प' से बचकर उचित अर्थोपार्जन करना चाहिए और अर्थ को धर्म एवं मोक्ष के साधन के रूप में ही स्वीकारना चाहिए ।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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