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________________ विराम नहीं होगा, वहाँ विश्रान्ति कैसे मिलेगी और जहाँ विराग (अनासक्ति) नहीं होगा, वहाँ स्थायी परम-शान्ति कैसे प्राप्त होगी? इस प्रकार, भौतिकवादी अर्थ-व्यवस्था में व्यक्ति की तृष्णा बढ़ती तो जाती है, किन्तु तृप्ति नहीं हो पाती। आधुनिक युग के औरंगजेब, नेपोलियन, हिटलर, सद्दाम हुसैन या वीरप्पन क्यों न हो अथवा प्राच्य युग के सुभूम चक्रवर्ती, धवल सेठ, रावण, कंस, दुर्योधन, मम्मण या सिकन्दर क्यों न हो, इनके जीवन-विनाश का मुख्य कारण भौतिकवाद की प्रमुखता ही रही है। यह भौतिकवाद ही है, जिसके कारण आज भ्रष्टाचार, अराजकता और अनाचार बढ़ रहे हैं, राजनीति बदनाम हो रही है, समाज विघटित हो रहा है, परिवार टूट रहे हैं, स्वार्थ पनप रहा है, संस्कृति नष्ट हो रही है, मानव दानव बन रहा है, मस्तिष्क खोखला और मनोभावनाएँ शुष्क हो रही हैं, सिद्धान्त छूटी पर लटके हैं, संस्कार लुप्त हैं। व्यक्ति मनुष्य को पशु और पशु को कीड़े-मकोड़े जैसा मान बैठा है। अधिक क्या कहना , पूर्व-वर्णित समस्त दुष्परिणामों की मूल जड़ भौतिकवाद ही है। जैनआचारमीमांसा पर आधारित अर्थ-प्रबन्धन का मुख्य सूत्र है – जीवन में भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता और नैतिकता की समन्विति। 135 जब हमारी जीवन-दृष्टि आध्यात्मिक और नैतिक बनेगी, तभी नूतन अर्थनीति की सम्यक् नींव डल सकेगी। यह नींव ही वर्तमान अर्थनीति के दोषों एवं दुष्प्रभावों का सम्यक् उन्मूलन कर उसे सन्तुलित, सुमर्यादित और सुव्यवस्थित बना पाएगी। इससे ही हमारे आर्थिक प्रयत्न सार्थक होंगे और जीवन शान्तिमय बनेगा। (2) अर्थ-प्रबन्धन का आशय जैनआचारमीमांसा पर आधारित अर्थ-प्रबन्धन आर्थिक समस्याओं के समाधान की एक सम्यक् प्रक्रिया है। यह वह प्रक्रिया है, जो देश, काल, परिस्थिति एवं व्यक्ति की भूमिका के अनुसार सम्यक् आर्थिक उद्देश्य का निर्माण करने पर बल देती है, साथ ही निर्धारित उद्देश्य की सफल प्राप्ति के लिए उचित नीति-निर्देश भी प्रदान करती है। जैसा कि पूर्व में बताया गया है, इसके दो मुख्य पक्ष हैं - सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक। जीवन-प्रबन्धक इसमें निर्दिष्ट सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक सूत्रों का प्रयोग कर अपने आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। इतना ही नहीं, वह आर्थिक लक्ष्य को साधन बनाकर सम्यक् जीवन-लक्ष्य (मोक्ष) को भी सफलतापूर्वक साध सकता है। वस्तुतः, वर्तमान परिवेश में अर्थ-प्रबन्धन की इस प्रक्रिया को जीवन-व्यवहार में अपनाने की नितान्त आवश्यकता है। जैनआचारमीमांसा के उपयोगी नीति-निर्देशों में कहीं भी विचारों की संकीर्णता नहीं है। सामान्य व्यक्ति के लिए इसमें न तो 'अर्थ' का निषेध किया गया है और न ही 'अर्थ' को अनर्थ का कारण बनने की स्वतंत्रता दी गई है। यहाँ तो अनैकान्तिक दृष्टिकोण से उचित व्यक्ति के लिए उचित अर्थ की प्राप्ति का निर्देश दिया गया है। इन निर्देशों का भलीभाँति पालन करता हुआ साधक शनैः-शनैः विविध आर्थिक समस्याओं से मुक्त होकर सुख-शान्ति एवं आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। 559 अध्याय 10: अर्थ-प्रबन्धन 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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