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________________ ★ सामाजिक परिचय, प्रतिष्ठा एवं व्यवहार के निर्वाह का साधन (Means of Social Needs) * पर्यावरण के रख-रखाव का साधन (Means of Environmental Protection) ★ जीवन में उद्यमशीलता एवं सक्रियता बनाए रखने का साधन (Means for Being Busy & Active) ★ अन्यों की सेवा एवं सहयोग का साधन (Means for Services & Helps) ★ धार्मिक व्यवहार का साधन (Means for Religious Activities) ★ सुख, शान्ति एवं सन्तुष्टि का साधन, विशेषतः गरीबों, दीन-दुःखियों और कमजोरों के लिए। इस प्रकार, 'अर्थ' से मनुष्य के सभी प्रयोजन (लौकिक एवं पारलौकिक) सिद्ध हो सकते हैं।38 यही कारण है कि संसार में जिसके पास धन (अर्थ) होता है, उसे ही कुलीन, पण्डित, शास्त्रज्ञ, गुणवान् , गुणज्ञ , वक्ता और मनोज्ञ माना जाता है। 10.2.2 अर्थ के महत्त्व सम्बन्धी विविध विचारधाराएँ यद्यपि अर्थ के महत्त्व को सामान्य व्यक्ति से लेकर विद्वानों, दार्शनिकों, चिन्तकों, वैज्ञानिकों एवं साधकों ने एकमत से स्वीकार किया है, तथापि उसकी प्राथमिकता को लेकर इनमें मतभेद भी हैं। समस्त विचारधाराओं को प्रसंगतः तीन प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है - 1) भौतिक विचारधारा 2) नैतिक विचारधारा 3) आध्यात्मिक विचारधारा (1) भौतिक विचारधारा इसके समर्थकों में संसार के अधिकतम व्यक्ति आते हैं। वे 'अर्थ' को भौतिक विकास का सशक्त साधन मानकर जीवन में सर्वोपरि स्थान देते हैं, किन्तु वे अर्थ के दुष्परिणामों को पूरी तरह से अनदेखा कर देते हैं। भौतिकवादियों की मान्यता में 'अर्थ' की महत्ता कुछ इस प्रकार है - ★ सामान्य व्यक्ति कहता है - इस दुनिया में एक भी मनुष्य ऐसा नहीं, जो धन के बिना अपना काम चला सके। जैसे श्वास शरीर का संचालन करती है, वैसे ही धन जीवन का। धन के अभाव में व्यक्ति की कोई कीमत नहीं, जैसे श्वास के अभाव में शरीर की। * अर्थशास्त्री केन्स (Keynes) कहते हैं – हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है, सबको धनी बनाना है। इस मार्ग में नैतिक विचारों का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि ये न केवल अप्रासंगिक हैं, बल्कि उन्नति के मार्ग में बाधक भी हैं। ★ चार्वाक दर्शन का मत है - जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष न होकर सांसारिक आनन्द और भोग-विलास ही है। जब तक जीवन है, तब तक सुखपूर्वक जीना चाहिए और सुख प्राप्ति के लिए जैसे भी हो सके अर्थ की प्राप्ति कर लेनी चाहिए। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 538 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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