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चाणक्य-सूत्र में एक समन्वित दृष्टिकोण दिया। उसके अनुसार, सुख का मूल धर्म है, धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है और राज्य का मूल इन्द्रियजय है। इस प्रकार, प्राचीन युग में 'अर्थ' का उपयोग धर्म, नैतिकता, चरित्र-निर्माण एवं अध्यात्म के साथ समन्वित रहा। (2) मध्य युग - इसमें कला एवं शिल्प की विचारधारा का महत्त्व ज्यादा रहा, जिससे अर्थ-विज्ञान के विकास की ओर बहुत कम ध्यान दिया जा सका। 'अर्थ' के सम्बन्ध में ‘सादा जीवन और उच्च विचार' (Simple living and High thinking) की नैतिक विचारधारा का बोलबाला रहा। कालान्तर में वणिकवादी विचारधारा ने अर्थ के अधिकाधिक संग्रह तथा वैज्ञानिक अध्ययन पर भी जोर दिया। (3) आधुनिक युग - इसमें मूलतः भौतिकवादी विचारधारा की मुख्यता रही है। सर एडम स्मिथ, प्रो. अल्फ्रेड मार्शल, प्रो. पीगू, प्रो. कैनन, प्रो. सर विलियम बैवरिज, प्रो. रॉबिन्स, प्रो. जे. के. मेहता, श्री सेम्युलसिन, श्री के. जी. सेठ, श्री हिक्स आदि अनेकानेक सुविख्यात अर्थशास्त्री इसी युग की देन हैं। 26 यह युग औद्योगिक क्रान्ति, संचार-क्रान्ति, परिवहन क्रान्ति, चिकित्सकीय-क्रान्ति आदि के कारण प्रसिद्ध हुआ। इसमें नैतिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक पक्षों की उपेक्षा करके एकान्त से भौतिकवाद को महत्त्व दिया गया। वर्तमान में दो मुख्य आर्थिक प्रणालियाँ प्रचलित हैं – पूंजीवाद (Capitalism) एवं साम्यवाद (Communism), लेकिन दोनों का मूल-दर्शन भौतिकवाद ही है।। भारत में भी इन दोनों की सम्मिश्रित प्रणाली प्रचलित है।
___ आर्थिक विकास के लिए इस युग में बृहद् प्रयत्न किए जा रहे हैं, लेकिन उनमें समीचीनता लाने हेतु अर्थ की प्रकृति का सम्यक् विश्लेषण करना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। यही विश्लेषण सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन की आधारशिला है, जो इस प्रकार है10.1.5 अर्थ की आवश्यकता क्यों और कैसे?
सामान्यतया एक आम आदमी एवं प्रवृत्तिमार्गी सभी विचारधाराएँ धन-सम्पत्ति को सुख–शान्ति का साधन मानती हैं तथा इनके उपार्जन को अनिवार्य कर्त्तव्य भी, किन्तु जैनदर्शन जैसी निवृत्तिमार्गी (मोक्षमार्गी) विचारधाराएँ इन्हें सुख-शान्ति का सम्यक् साधन नहीं, वरन् संज्ञा (Basic Instincts) रूप कमजोरियों की पूर्ति के लिए एक विवशतामात्र मानती हैं और इसीलिए ये अर्थार्जन को जीवन का अनिवार्य कर्तव्य भी नहीं मानती।
अर्थ-प्रबन्धन के लिए सर्वप्रथम यह जानना जरुरी है कि अर्थ की आवश्यकता क्यों और कैसे उत्पन्न हो जाती है? जैनाचार्यों ने इसका तर्कसंगत तथा वैज्ञानिक विवेचन किया है। उनके अनुसार, संसारी आत्मा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव में परिणमन करती हुई विविध जीवनरूपों (भव) की प्राप्ति करती रहती है। 28 भ्रमवश वह इन जीवनरूपों में अस्थायी रूप से प्राप्त संयोगों, जैसे - शरीर, परिवार, भौतिक सम्पत्ति आदि को ही अपना सर्वस्व मान बैठती है। इतना ही नहीं, दिन-रात इनसे सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए असीम एवं अन्तहीन परिश्रम भी करती रहती है। इस भ्रमित 533
अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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