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10.1.2 जैनआचारशास्त्र की दृष्टि में अर्थ
जैनशास्त्रों में भी अर्थ - विषयक अनेकानेक दृष्टियाँ प्राप्त होती हैं, जिनसे 'अर्थ' शब्द की
अनेकार्थता का परिचय मिलता है, जैसे
★ शब्द के अभिप्राय या आशय को 'अर्थ' कहते हैं। ★ सूत्र
के अभिधेय (कथ्य) को 'अर्थ' कहते हैं । '
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★ जानने, प्राप्त करने अथवा निश्चित करने योग्य तथ्य को 'अर्थ' कहते हैं ।
★ द्रव्य को 'अर्थ' कहते हैं । 11
★ विविध रूपों (पर्यायों) को प्राप्त करने वाले द्रव्य को भी 'अर्थ' कहते हैं।' ★ मणि, कनक आदि को 'अर्थ' कहते हैं।
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★राजलक्ष्मी आदि को 'अर्थ' कहते हैं । "
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★ सत्ता, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु और विधि को 'अर्थ' कहते हैं।
★ स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति में कारणभूत साधन 'अर्थ' है । "
★ सर्व प्रयोजनों की सिद्धि जिससे होती है, वह 'अर्थ' है। 17
जैन भाषा शास्त्रों में अनेकार्थी शब्द के अर्थविशेष का प्रसंगतः चयन करने के लिए 'समभिरूढ़ नय' (रूढ़ अर्थ को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण) का प्रयोग करने का निर्देश मिलता है। 18 इस आधार पर प्रस्तुत अध्याय में 'अर्थ' को आगे व्याख्यायित किया जा रहा है।
10. 1.3 अर्थ की सम्यक् परिभाषा: प्रस्तुत अध्याय के सन्दर्भ में
इस अध्याय में 'अर्थ' का आशय केवल मुद्रा (Currency ) नहीं है । स्थूल स्तर (Macrolevel) पर तो भौतिक एवं चैतसिक दोनों प्रकार की वस्तुएँ 'अर्थ' हैं। अतः, आत्मा, कर्म, शरीर, धन, सम्पत्ति, परिजन आदि सबका समावेश 'अर्थ' शब्द में हो जाता है। प्रवचनसार में गुरू-शिष्य संवाद के माध्यम से अर्थ के अभिप्राय को सुस्पष्ट किया गया है। शिष्य ने पूछा 'कः खल्वर्थः' ('अर्थ' क्या है ? ) आचार्य ने जवाब दिया स्व (आत्मा) तथा पर (अनात्मा) रूप में अवस्थित सम्पूर्ण विश्व ही 'अर्थ' है। 18 चूँकि विश्व तो अनेक द्रव्यों का समूह है और प्रत्येक द्रव्य के आश्रित उसकी अनन्त शक्तियाँ (गुण) विद्यमान हैं, जो निरन्तर परिवर्तनशील रहकर अपना-अपना कार्य (पर्याय) करती रहती हैं, अतः समस्त द्रव्य-गुण- पर्याय का समावेश 'अर्थ' में हो जाता है। 20 इस प्रकार, अशेष रूप से समस्त बाह्य (निजात्मा से अन्य) तथा आभ्यन्तर पदार्थ (आत्मा) 'अर्थ' ही है।
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फिर भी, जीवनयात्रा में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी निश्चित जैविक आवश्यकताएँ होती हैं, जिनकी पूर्त्ति वह बाह्य वस्तुओं, जैसे- भोजन, आवास, वाहन, वस्त्र, मुद्रा आदि से करता है। इस हेतु वह अंतरंग वस्तु अर्थात् आत्मा एवं उसकी ज्ञान, इच्छा, कषाय, रुचि, पुरूषार्थ आदि शक्तियों का
अध्याय 10: अर्थ-प्रबन्धन
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