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________________ तप, त्याग, व्रत आदि अनेकानेक सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक अनुष्ठानों की व्यवस्था की है। साथ ही बारम्बार यह समझाने का प्रयास किया है कि ये इच्छाएँ ही सभी समस्याओं का मूल है और इन इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर लेने से सभी दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। (७) संविभाजन एवं सामाजिक-प्रबन्धन – समाज-प्रबन्धन के लिए समाजवादी विचारधारा ने कुछ उपयोगी सूत्र दिए हैं, जिनके द्वारा सामाजिक विषमताएँ समाप्त हो सकें और समाज के प्रत्येक सदस्य को समान साधन एवं सुविधाएँ मिल सकें। परन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है, जब सरकार या प्रशासन के द्वारा सामाजिक समानता के नियमों को व्यक्तियों पर न थोपा जाए, वरन् व्यक्ति स्वेच्छा से स्वयं ही इसकी पहल करे। जैनदृष्टि में इस हेतु एक सुन्दर व्यवस्था है। इसमें व्यक्ति के भावों में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जाता है, जिससे उसकी आकिंचन्य भावना अर्थात् सांसारिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति की भावना जाग्रत होती है, साथ ही सभी प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य (आत्मतुला) की दृष्टि भी उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप, सरकार या प्रशासन के बजाय व्यक्ति स्वयं अपने लिए प्राप्त सामग्रियों में से एक विभाग अन्यों के लिए भी निकालने हेतु सहर्ष पहल करता है। वह अन्य के द्वारा बाध्य नहीं किए जाने पर भी विश्व-बन्धुत्व की भावना से सहज ही अन्तःप्रेरित होता है। केवल सैद्धान्तिक तौर पर ही नहीं, अपितु व्यावहारिक स्तर पर भी वह इस भावना को साकार करता है। इस दिशा में वह जो प्रयत्न करता है, उसे जैनशास्त्रों में संविभाग कहा गया है। दशवैकालिकसूत्र का यह पद, 'अविसंविभागी न हु तस्स मोक्खो'82 (जो दूसरों के लिए अपनी सामग्रियों का विभाग नहीं करता, उसका मोक्ष नहीं होता), सम्यक विभाजन की ही प्रेरणा देता है। वस्तुतः, विचारों में समता एवं व्यवहार में संविभाग ही सामाजिक-संगठन को मजबूती प्रदान करता है। जीवन-प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को चाहिए कि वह उपर्युक्त समाज-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्षों एवं मूल्यों का उचित चिन्तन, मनन एवं निर्णय करे। यदि वह इनका सम्यक् अनुशीलन करता है, तो निश्चित तौर पर अपने सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति एवं सुसंस्कारों के साथ प्रगति कर सकेगा। =====4.>===== 517 अध्याय 9 : समाज-प्रबन्धन 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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