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________________ आगे कहा गया है कि जैन साधना के पाँचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही हैं। अतः यह मानना पड़ेगा कि जैन साधना में लोक-कल्याण की प्रवृत्ति को भी उचित महत्त्व दिया गया है। जैनविचारकों ने लोकहित के तीन स्तर माने हैं - 1) द्रव्यलोकहित – भौतिक साधनों, जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित करना। 2) भावलोकहित - भौतिक स्तर से ऊपर उठकर ज्ञानात्मक या भावात्मक साधनों के द्वारा लोकहित करना। 3) पारमार्थिक लोकहित – उपदेश रूप साधनों के द्वारा जीवन मुक्ति के मार्ग का लोकहित करना। जैनाचार्यों ने इन तीनों में भी क्रमशः उच्चता का निर्देश दिया है। इस प्रकार, जैनदृष्टि में अनेकशः यह दर्शाया गया है कि स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ करने योग्य है। यह तथ्य निम्नलिखित उक्ति से स्पष्ट है - संक्षेपात्कथ्यते धर्मो, जनाः! किं विस्तरेण वः । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। अर्थात् जैनदृष्टि से संक्षिप्त में धर्म (नैतिक-कर्त्तव्य) की व्याख्या इतनी ही है कि लोकहित (परोपकार) से पुण्य एवं पर-पीड़ा देने से पाप रूप फल की निष्पत्ति होती है। यद्यपि जैनदर्शन लोकहित को उचित मानता है, तथापि इसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन तो किया जा सकता है, लेकिन परमार्थ का नहीं। उसके अनुसार, भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और करना भी चाहिए, क्योंकि वे मूलतः संसार की ही हैं, हमारी नहीं। किन्तु यदि आध्यात्मिक विकास एवं नैतिक मूल्यों की कीमत पर लोकहित होता है, तो यह उचित नहीं। कहा भी गया है - आत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी करो, लेकिन जहाँ आत्महित एवं लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित का अपलाप होता हो, वहाँ सिर्फ आत्म-कल्याण ही श्रेष्ठ है। वस्तुतः आत्महित भी परोक्ष रूप में लोकहित का ही कारण है। आत्महित करने वाले साधक सामाजिक–अव्यवस्था के लिए तो जिम्मेदार होते ही नहीं हैं, वरन् वे कुछ ऐसे जीवन-आदर्श छोड़ जाते हैं, जो सामाजिक आदर्श एवं मूल्य के रूप में चिरकाल तक पथ-प्रदर्शक बने रहते हैं। इस प्रकार, जैनाचार्यों ने समाज-प्रबन्धन के लिए गहन और सम्यक् सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान किया है। 515 अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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