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________________ चाहिए (संघोवरि बहुमाणो), क्योंकि संघ ही भयभीत व्यक्तियों के लिए आश्वासन रूप है, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत है, सर्वत्र समता के कारण शीतलता प्रदायक है, समदर्शी होने के कारण माता-पिता तुल्य है तथा सभी प्राणियों के लिए शरणस्थल है। जैनाचार्यों की प्रेरणा को आधार बनाकर जीवन–प्रबन्धक को अपनी संकीर्ण मानसिकता का परित्याग कर अपने पारिवारिक, धार्मिक एवं लौकिक समाज के प्रति कुटुम्बवत् व्यवहार करना चाहिए। इसी का नाम सामाजिक चेतना का विकास है। कहा भी गया है - शिवमस्तु सर्व जगतः परहित-निरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ।। __अर्थात् सम्पूर्ण जगत् का कल्याण हो, सभी प्राणी लोकहित में तत्पर हों, सामाजिक बुराइयाँ नाश को प्राप्त हों और सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण हो। (2) मनोवृत्ति की निर्मलता एवं सामाजिक-प्रबन्धन - सामाजिक-प्रबन्धन में विषमता उत्पन्न करने वाले चार मूलभूत कारण हैं - 1) संग्रह (लोभ), 2) आवेश (क्रोध), 3) गर्व (मान) एवं 4) कपट (माया)। इन्हें जैनाचार्यों ने कषाय अर्थात् कलुषित मनोभावों की संज्ञा दी है। __डॉ. सागरमलजैन के अनुसार, ये चारों अलग-अलग रूप में प्रकट होकर सामाजिक जीवन में अशान्ति एवं संघर्ष पैदा करते हैं। एक ओर संग्रह की मनोवृत्ति से शोषण, अप्रामाणिकता, क्रूरता, विश्वासघात, स्वार्थपरकता आदि विकसित होते हैं, तो दूसरी ओर आवेश की मनोवृत्ति से संघर्ष, युद्ध , आक्रमण, हत्या आदि पनपते हैं। इसी प्रकार गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, ईर्ष्या , क्रूरता आदि होते हैं, तो कपट की मनोवृत्ति के कारण पारस्परिक अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहारों का विकास होता है। इस प्रकार ये कषाय सामाजिक जीवन को दूषित कर देती हैं। 2 जैनदर्शन में इसीलिए इन कषायों के निरोध को नैतिक एवं आध्यात्मिक साधना का आधार बनाया गया है। अतः यह मानना होगा कि जीवन-प्रबन्धक जैनदर्शन के साधना-मार्ग को अपनाकर न केवल कषायों को उपशान्त करने में सफल हो सकता है, अपितु अपने सामाजिक जीवन को भी सुव्यवस्थित बना सकता है। (3) सम्यग्दर्शन एवं सामाजिक-प्रबन्धन - जैनदर्शन के अनुसार, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन अर्थात् सही दृष्टिकोण का विकास है। यह साधना का प्रथम सोपान है। जो इसे प्राप्त कर लेता है, वह आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन जीने की कला भी सीख लेता है। उसे अनावश्यक व्यवहारों की तुच्छता एवं आवश्यक व्यवहारों की उपयोगिता का विवेक हो जाता है। वह जगत् में निर्लिप्तभावों से जीने की साधना करता रहता है। इससे वह न केवल वैयक्तिक-जीवन, अपितु पारिवारिक , धार्मिक एवं लौकिक जीवन को भी शान्तिपूर्ण ढंग से बिताता है। 511 अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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