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________________ अध्याय 1 जीवन-प्रबन्धन का पथ (The Path of Life Management) 1.1 मंगलाचरण प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रारम्भ में परम्परा का परिपालन करते हुए ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति हेतु नमस्कारात्मक मंगलाचरण प्रस्तुत करते हैं - वीरं नत्वा मनुष्येभ्यः, सिद्धिमार्गप्रकाशकम् । दुःखमुक्तिकारि वक्ष्ये, श्रीजीवन-प्रबन्धनम् ।। शब्दार्थ (वीर) प्रभु महावीरस्वामी को (नत्वा) नमस्कार करके (सिद्धि-मार्ग-प्रकाशक) सिद्धि-मार्ग को प्रकाशित करने वाले तथा (दुःखमुक्तिकारि) समस्त दुःखों से मुक्त करने वाले (श्रीजीवन-प्रबन्धनम्) आत्मसम्पदा (सुख, शान्ति और आनन्द) को प्राप्त कराने वाले जीवन-प्रबन्धन नामक इस शोध-ग्रन्थ को (मनुष्येभ्यः) स्व और पर सभी मनुष्यों के हितार्थ (वक्ष्ये) कहूँगा। 1.1.1 अनुबन्ध चतुष्टय प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम अनुबन्ध-चतुष्टय का उल्लेख करना होगा, जो वस्तुतः किसी भी ग्रन्थ में मानव की सोद्देश्य प्रवृत्ति कराने के लिए आवश्यक है। यह विषय, प्रयोजन, अधिकारी और सम्बन्ध - इन चार तथ्यों का समुच्चय है।' इन चारों के माध्यम से क्रमशः यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय क्या है, इससे किस उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है, इसके अध्ययन का सुयोग्य पात्र कौन है और इस का अपने विषय से क्या सम्बन्ध है? इस प्रकार, अनुबन्ध-चतुष्टय इस बात की सुस्पष्टता है कि समर्थ मानव के प्रयोजन की सिद्धि के लिए ग्रन्थ उपयुक्त विषय का प्रतिपादन करता है। (1) शोध-ग्रन्थ का विषय इस शोध-ग्रन्थ का विषय है - जीवन-प्रबन्धन अर्थात् जीवन को सुव्यवस्थित करना। जीवन के सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में एक आम आदमी बहिर्मुखी होकर कभी स्वार्थ और ममत्व के लिए, अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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