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________________ vi) कलह अर्थात् आपसी विवादों एवं वाक्-युद्ध से बचें। vii) झूठे दोषारोपण, चुगलखोरी आदि पाप प्रवृत्तियों से बचें। viii) अनावश्यक विषयों पर बातचीत करने अर्थात् विकथाओं से बचें। आशय है कि राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा एवं भोजनकथा से स्वयं को अनावश्यक रूप से नहीं जोड़ें। ix) रात्रि में गपशप अथवा टी.वी. के कोलाहल में जीने के बजाय सामायिक, प्रतिक्रमण, मौन आराधना आदि करें। x) जोर-जोर से बोलने अथवा जोर-जोर से टेप, टी.वी. आदि सुनने की आदत छोड़ें। 4) रेडियोधर्मी तथा अन्य विकिरण (Radiation) प्रदूषण का संरक्षण i) बिजली निर्माण हेतु सौर-ऊर्जा को महत्त्व दें, न कि आणविक ऊर्जा को। ii) आणविक शस्त्रों के परीक्षणों एवं युद्धों पर रोक लगाकर निःशस्त्रीकरण की नीति अपनाएँ तथा विश्व-बन्धुत्व की भावना को प्रगाढ़ करें। iii) घरों में वायु-प्रवाह (Cross Ventilation) होना अत्यन्त आवश्यक हैं। रेडियो एक्टिव रेडॉन (Radon) गैस फर्श की दरारों से, ट्यूबवैल के पानी आदि से निकलती रहती है। यदि कमरों से वायु प्रवाह नहीं होगा, तो इस घातक गैस का घनत्व बढ़ेगा जो केंसर आदि रोगों को जन्म देगी, इसीलिए खिड़कियाँ खुली रखना भी आवश्यक है। iv) मोबाईल एवं अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों के उपयोग को मर्यादित करें। 8.6.5 वनस्पति-संरक्षण जैनाचार्यों ने वनस्पति के संरक्षण के लिए अनेकानेक निर्देश दिए हैं, जिनका अनुकरण करके पर्यावरण का संरक्षण किया जा सकता है। ढाई हजार वर्ष पूर्व दुनिया में जहाँ वनस्पति को सिर्फ भोगोपभोग की वस्तु माना जाता था, वहीं भगवान् महावीर ने अपनी दिव्य वैज्ञानिक दृष्टि के बल पर उसे सजीव सिद्ध किया।213 आश्चर्य की बात है कि आधुनिक वैज्ञानिकों को भी वनस्पति की सजीवता को तब स्वीकारना पड़ा, जब सन् 1920 में सर जगदीशचन्द्र बसु ने यन्त्रों के माध्यम से इसको सिद्ध कर दिखाया।214 वनस्पति को सजीव मानने से भी आत्मतुल्य जीवनदृष्टि का विकास होता है, जो पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए अत्यावश्यक है। आचारांग में वानस्पतिक जीवन की मानवीय जीवन से तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मानव उत्पन्न होता है, वृद्धिशील होता है, चेतनायुक्त होता है, छेदन-भेदन करने पर कुम्हलाता है, आहार करता है, अनित्य होता है, घटता-बढ़ता है और विकृत होता है, उसी प्रकार वनस्पति भी वर्त्तन करती है।215 आशय यह है कि जैसे हम जीवन युक्त हैं और अनुकूल-प्रतिकूल , सुख-दुःख आदि संवेदनाओं की अनुभूति करते हैं, वैसी ही अनुभूति वनस्पति को भी होती है। अतः हमारा कर्तव्य 50 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 474 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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