SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8.6.4 वायु-संरक्षण ___ वायु प्रदूषण रोकने के विषय में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट है। यद्यपि प्राचीनकाल में वे विविध साधन नहीं थे, जो आज वायु प्रदूषण के कारण बने हैं, फिर भी वायु–संरक्षण के विषय में जैन जीवनशैली की प्रासंगिकता एवं अनिवार्यता आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। यह पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है। जैनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें न केवल वायु के आश्रित जीवन के विविध रूपों को स्वीकारा गया है, अपितु स्वयं वायु को भी जीवित माना गया है। 201 वायु के जीवों की अवगाहना (शरीर की लम्बाई) के विषय में कहा गया है कि ये अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण होते हैं अर्थात् लगभग 1 घन सेन्टीमीटर वायु में असंख्य जीव होते हैं।202 आचारांगसूत्र में इन सूक्ष्म जीवों के प्रति आत्मतुल्य दृष्टिकोण अपनाने तथा हिंसात्मक व्यवहार नहीं करने के लिए कहा गया है।203 कहा गया है कि 'जैसे स्वयं सुखाभिलाषी होकर अपनी रक्षा करते हो, वैसे ही दूसरों अर्थात् वायु के जीवों की भी करो।' विवेकशील व्यक्ति की यह पहचान होती है कि वह शारीरिक एवं मानसिक पीड़ाओं की अनुभूति को भलीभाँति समझता है, हिंसात्मक कार्यों को अहितकारी मानता है, अतः वायु के जीवों की हिंसा अर्थात् वायु-प्रदूषणकारी कार्यों से स्वयं को निवृत्त कर लेता है।204 सोचा जा सकता है कि यदि वायु-प्रदूषण की गम्भीर समस्या से मुक्त होना है, तो हमें ऐसे विवेकशील व्यक्तियों का अनुकरण करना आवश्यक है। __ जब हम वायु का प्रदूषण अर्थात् वायुकायिक जीवों की हिंसा करते हैं, तब वायु के आश्रित जीने वाले मच्छर आदि अनेक प्राणियों की हिंसा सहज ही हो जाती है। यह वायुमण्डल के पारिस्थितिकी तन्त्र (Ecosystem) के लिए भी खतरा है। जैनाचार्यों ने इन जीवों के प्रति भी गहरी संवेदना व्यक्त की है। आचारांग में कहा गया है – वायु के साथ कई उड़ते हुए प्राणी भी होते हैं, जो वायु के साथ एकत्रित होते हैं एवं वायु के जीवों की हिंसा अर्थात् वायु प्रदूषण के कारण वे भी पीड़ा पाते हैं, मूर्च्छित होते हैं एवं मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अतः वायु का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।205 यह अहिंसा आधारित दृष्टिकोण वायु–संरक्षण के लिए. अत्यन्त उपयुक्त है। इससे वायु-प्रदूषण से मुक्ति एवं जैव विविधता की रक्षा होती है, साथ ही पर्यावरणीय सन्तुलन भी भंग नहीं होता है। इसके उपरान्त भी यदि कोई वायु प्रदूषण करता है, तो जैनाचार्यों ने इसे कर्मबन्धन का कारण माना है। दशवैकालिक में स्पष्ट कहा है कि इसे दुर्गतिवर्धक जानकर साधु-साध्वी इस वायु के समारम्भ (हिंसा) का आजीवन परित्याग करे।206 वायु-प्रदूषण को अग्नि के समान तीव्र पापयुक्त कार्य मानकर वे पंखे आदि से न हवा करें और न अन्यों से हवा कराएँ ।207 आचारांग में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि 'बुद्धिमान् पुरूष वायुकाय के जीवों की हिंसा को अनुचित मानकर न स्वयं हिंसा करें, न कराएँ और न समर्थन ही करे। यहाँ तक भी कह दिया गया कि जो वायुकाय के समारम्भ का 471 अध्याय 8: पर्यावरण-प्रबन्धन 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy