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________________ क्या अहिंसा का पूर्ण पालन सम्भव है? इस शंका के समाधान को मुनि की माधुकरी वृत्ति के रुप में प्रस्तुत किया गया है, जो पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए भी आदर्श है। दशवैकालिकसूत्र में मुनि की निर्दोष आहार-चर्या (उपलक्षण से आवास, वस्त्र आदि समस्त चर्या) का चित्रण पूर्ण अहिंसा का दिग्दर्शन है। ★ जैसे मधुकर (भँवरा) अवधजीवी है अर्थात् जीवन-निर्वाह के लिए किसी का हनन, उपमर्दन आदि नहीं करता, उसी प्रकार मुनि भी आहार-प्राप्ति के लिए हिंसात्मक प्रवृत्ति नहीं करे।135 * जैसे मधुकर पुष्पों को म्लान नहीं करते हुए थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि भी गृहस्थ के घर से स्वाभाविक रूप से निर्मित निर्दोष आहार अल्पमात्रा में ग्रहण करे।130 ★ जैसे मधुकर उदरपूर्ति के लिए आवश्यक रस ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि भी संयम के निर्वाह के लिए आवश्यक आहार ले, स्वादवश अधिक आहार न ले।137 ★ जैसे मधुकर थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, जिससे फूल म्लान नहीं होते, वैसे ही मुनि भी अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ले, जिससे गृहस्थ पर भार न आवे ।138 ★ जैसे मधुकर एक वृक्ष या फूल से नहीं, किन्तु अनेक वृक्षों या फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि एक व्यक्ति, घर या गाँव पर आश्रित न होकर भिक्षा ग्रहण करे।139 इससे यह कहा जा सकता है कि जैनआचारमीमांसा के अनुसार जीने वाले महाव्रती साधक सिर्फ सैद्धान्तिक स्तर पर ही नहीं, प्रायोगिक स्तर पर भी अहिंसा का परिपालन करते हैं। यह जीवनशैली मानव एवं पर्यावरण के परस्पर सहकार का आदर्श रूप है। इस जीवनशैली का अनुकरण मानवमात्र के द्वारा होना चाहिए। भले ही गृहस्थ वर्ग इसका पूर्ण पालन न कर सके, फिर भी जैनआचार में निर्दिष्ट मार्गानुसारी गुण, अणुव्रत, प्रतिमा आदि को ग्रहण कर वह इस आदर्श का यथाशक्ति अनुकरण तो कर ही सकता है। इससे वह न केवल आत्महित साध सकता है, अपितु पर्यावरण-प्रबन्धन में अपना सकारात्मक योगदान भी दे सकता है। (9) हिंसा के दुष्परिणाम एवं पर्यावरण-प्रबन्धन की प्रेरणा 40 जैनाचार्यों ने पृथ्वी, जल, हवा आदि के अतिदोहन एवं प्रदूषण के दुष्परिणामों के प्रति बारम्बार सावधान किया है। आचारांग में कहा गया है – 'आरंभजं दुक्खं' अर्थात् हिंसा आदि असत्प्रवृत्तियाँ दुःख का कारण हैं।141 आज हम भले ही आर्थिक विकास, भौतिक ऐश्वर्य, सुविधाप्रद सम्पन्नता, व्यसन, मौज-शौकपरक विलासिता, फैशनपरक संस्कृति, प्रदर्शनपरक सभ्यता के मोहपाश में उलझते जा रहे हों, किन्तु इससे पर्यावरणीय ह्रास बढ़ता ही जा रहा है। जैनाचार्यों की दृष्टि में उपर्युक्त लक्ष्यों की पूर्ति के लिए हम जो हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, 32 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 456 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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