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मृदा
अहिंसा को समान दृष्टि से स्वीकारना ही होगा। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है – 'हमें सत्कार्यों में प्रवृत्त और असत्कार्यों से निवृत्त होना चाहिए। 125 आचारांग आदि में भी सर्वत्र इन दोनों पक्षों का निर्देशन किया गया है। ‘प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझना126 और किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाना'-127 ये दो निर्देश अहिंसा के दोनों पक्षों की समन्वयात्मक प्रस्तुति करते हैं, जो पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए अत्यन्त उपयुक्त हैं। (7) परस्पर सहयोग की भावना एवं पर्यावरण-प्रबन्धन128
पर्यावरण के विविध घटकों के बीच जो अन्तःक्रियाएँ (Interactions) होती रहती हैं, उससे पारिस्थितिकी-तन्त्र (Ecosystem) की रचना होती है। 129 जब तक यह तन्त्र सन्तुलित रहता है, तब तक मानव सुरक्षित रहता है, लेकिन इसके असन्तुलित होने पर मानव का अस्तित्व खतरे में आ
जाता है। आज यही असन्तुलन घटित हो रहा है। चित्र में जैनदृष्टि से पारिस्थितिकी-तन्त्र का निदर्शन किया गया है।
यह एक अनुभूत सत्य है कि हमारा जीवन पारिस्थितिकी-तन्त्र पर आश्रित है और पारिस्थितिकी तन्त्र हमारी क्रियाओं का ही परिणाम है। संक्षिप्त में कहें, तो दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हैं। जन्म से मृत्यु तक हमारे जीवन की प्रत्येक आवश्यकता, जैसे - आहार, पानी, वस्त्र, आवास, वाहन, औषधि, उपकरण आदि पारिस्थितिकी तन्त्र से ही पूरी होती है। अतः इस तन्त्र का हम पर अतुलनीय उपकार
जल
अग्नि
वायु
वनस्पति
त्रस
है।
इस सत्य को समझने की जीवन-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न रही हैं। एक दृष्टिकोण ने विनाश से विकास का मार्ग चुना, तो दूसरा दृष्टिकोण जैनाचार्यों का रहा, जिन्होंने सहयोग से विकास का मार्ग चुना। पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए सही दृष्टिकोण का चयन अनिवार्य है, अन्यथा सफलता नहीं मिल सकती।
पहला दृष्टिकोण यह रहा कि जब एक का जीवन दूसरे पर आश्रित है, तो हमें यह अधिकार है कि हम दूसरे प्राणियों का विनाश करके भी अपना अस्तित्व बचाए रखें। पश्चिम में 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' (Struggle for the Existence/Survival) एवं पूर्व में ‘जीवो जीवस्य भोजनम्' के सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्व में आए। इनकी जीवन-दृष्टि हिंसक होने से इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना। आज पूर्व से पश्चिम तक सर्वत्र इसी दृष्टिकोण का बोलबाला है, मानव के अस्तित्व की सुरक्षा एवं जीवन-विकास के लिए जीवन के दूसरे रूपों का विनाश हो रहा है। परिणामस्वरूप पृथ्वी, जल एवं हवा में प्रदूषण ही नहीं, अपितु वनस्पति एवं अन्य प्राणियों की असंख्य प्रजातियों का विलोप भी हो रहा है। किन्तु, अब विज्ञान भी स्वीकार रहा है कि जीवन के विविध रूपों
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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