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________________ (5) वैचारिक अहिंसा एवं पर्यावरण - प्रबन्धन सामान्यतया किसी को सताना, पीड़ा देना या मारना हिंसा कहलाता है, परन्तु जैनाचार्यों ने स्पष्ट किया है कि पाँच इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति, चार कषाय, चार विकथा, निद्रा एवं स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों के वशीभूत होकर किसी को सताना, पीड़ा देना या मारना हिंसा है। 115 इसी आधार पर हिंसा के दो भेद किए गए हैं। द्रव्य और भाव । अन्य जीवों की हिंसा करना द्रव्यहिंसा है, जबकि - 116 अंतरंग में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मनोवृत्तियों से स्वयं का नाश करना, भावहिंसा होती है। यहाँ यह विशेषता है कि द्रव्यहिंसा बाह्य पर्यावरण को प्रदूषित करती है, तो भावहिंसा अंतरंग पर्यावरण या वैचारिक पर्यावरण को । दोनों हिंसाओं में भावहिंसा की महत्ता अधिक है, क्योंकि जैनाचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि भावहिंसा के बिना द्रव्यहिंसा भी हिंसा नहीं है, किन्तु भावहिंसा के सद्भाव में द्रव्यहिंसा न होते हुए भी सतत हिंसा होती रहती है। इस आधार पर यह समझा जा सकता है कि आज विश्व में उत्पन्न हो रही पर्यावरणीय चिन्ताओं का मूल कारण व्यक्ति का वैचारिक पर्यावरण ही है। जैनाचार्यों का निर्देश है कि वैचारिक पर्यावरण की स्वच्छता ही बाह्य पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अनिवार्य एवं अपरिहार्य पहलू है । एक व्यक्ति ने नीम के पेड़ का पत्ता तोड़ा, चखा, कड़वा लगा। उसने नीम का फूल तोड़ा, चखा, कड़वा लगा। इसी प्रकार उसने डाली तोड़ी, वह भी कड़वी । आखिर उसने उस वृक्ष की जड़ चखी, वह भी कड़वी । उसकी समझ में आ गया कि जिसका मूल ही कड़वा है, उसकी शाखा, प्रशाखा, फल, फूल, पत्ते आदि कड़वे हों तो क्या आश्चर्य? 117 यह दृष्टान्त आज की पर्यावरणीय समस्याओं के सन्दर्भ में घटित होता है। विश्व पर्यावरण दिवस, जल-सुरक्षा वर्ष, पर्यावरणीय गोष्ठियों, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आदि को आयोजित कर पृथ्वी, जल, वायु आदि संसाधनों को प्रदूषणमुक्त रखने के उपाय भले ही किए जा रहे हों, किन्तु ये तभी सफल होंगे, जब प्रदूषण के लिए जिम्मेदार व्यक्ति के लोभादि अंतरंग कारण समाप्त होंगे। 118 विश्व में चारों ओर व्याप्त हिंसा, आतंकवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, साम्प्रदायिक संकीर्णता, असहिष्णुता, हड़ताल, आन्दोलन, तोड़फोड़ के दृश्यों, ढहते हुए आदर्शों, गिरते हुए नैतिक मूल्यों एवं मिटती हुई मर्यादाओं का मूल कारण मानव की दूषित विचारधाराएँ या भावनाएँ ही हैं। आचारांगसूत्र में बारम्बार कहा गया है। 'आतुरा परितावेन्ति' अर्थात् जो विषयातुर होता है, वही दूसरों को परितप्त करता ' आशय यह है कि विक्षिप्त मनोवृत्ति वाला व्यक्ति ही हिंसात्मक प्रवृत्ति करके पर्यावरण असन्तुलन उत्पन्न करता है। 119 मानव-मन में हिंसा-अहिंसा, प्रियता - अप्रियता, राग-द्वेष, क्षमा-क्रोध, विनय - अहंकार, निर्लोभता - लुब्धता, करुणा- क्रूरता, समत्व - ममत्व, सहिष्णुता - असहिष्णुता आदि प्रतिपक्षी भाव रहते हैं। इनमें से जब हम दूसरों के प्रति सहयोग, सरलता - कपटता, अनाग्रह - दुराग्रह, जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व 28 - Jain Education International For Personal & Private Use Only 452 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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