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________________ अध्याय 8 पर्यावरण-प्रबन्धन (Environment Management) आधुनिक युग का बहुचर्चित शब्द है - पर्यावरण, जिसका मानव-जीवन से सार्वकालिक, सार्वभौमिक और सार्वजनिक सम्बन्ध है। बिना पर्यावरण के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वस्तुतः, पर्यावरण मानव-जीवन हेतु प्रकृति द्वारा प्रदत्त सर्वोत्तम उपहार है। इस पर न केवल मानव-जीवन का अस्तित्व टिका है, वरन् जीवन का विकास भी इसी के सहयोग से सम्भव है। अतएव जीवन-प्रबन्धन में पर्यावरण का विशिष्ट योगदान है। पर्यावरण स्वतः प्रवाहशील है। वह न केवल मानव, अपितु समस्त प्राणियों को जीवन जीने के आवश्यक तत्त्व सहज ही प्रदान करता है, लेकिन मानव एक ऐसा प्राणी है, जिसने स्वार्थवश सम्पूर्ण पर्यावरण पर अपना अधिकार मान रखा है। वह इतना क्रूर हो गया है कि स्वहित के लिए पर्यावरण का अन्धाधुन्ध दोहन करने में लगा है। विडम्बना यह है कि वह पर्यावरण का ह्रास करके अपना विकास चाहता है, पर्यावरण का भक्षण करके अपना संरक्षण चाहता है और पर्यावरण का शोषण करके अपना पोषण चाहता है। वह यह भूल ही गया है कि आधार के बिना आधेय का अस्तित्व असम्भव है, परिणामस्वरूप आज पथ्वी के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। जो मानव अपने जीवन के विकास के गगनचुम्बी सपने देख रहा था, आज उसके अपने जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिह्न लगा हुआ है, इसीलिए मानव को चाहिए कि वह जीवन-प्रबन्धन के लिए पर्यावरण और उसकी समस्याओं को समझे, समस्याओं के तात्कालिक एवं सुदूरवर्ती दुष्परिणामों की समीक्षा करे तथा पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन के समुचित उपाय करे। इसी को पर्यावरण-प्रबन्धन कहते हैं और यह जीवन-प्रबन्धन का अत्यन्त आवश्यक पहलू है। जैनआचारशास्त्र जितने प्राचीन हैं, उतने ही प्रामाणिक भी। ये प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि भी हैं। इनमें पर्यावरण-प्रबन्धन के अनेक सूत्र हैं, जिनके प्रयोग से पर्यावरण की समस्याओं का सहज और सरल समाधान प्राप्त हो सकता है। प्रस्तुत अध्याय का अभिधेय भी इन सूत्रों को उद्घाटित करना ही है। प्रत्येक मानव का यह नैतिक दायित्व है कि वह जीवन में इन सूत्रों का यथोचित पालन करे। 425 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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