________________
(1) तीव्र मानसिक विकार - यह मानसिक-प्रबन्धन का निकृष्ट स्तर है, जिसमें व्यक्ति तीव्र ऋणात्मक (Negative) आवेगों से ग्रस्त रहता है। वह सामाजिक नीतियों का उल्लंघन करते हुए स्वयं भी अशान्त रहता है एवं दूसरों को भी अशान्त करता है, जैसे -
★ पारिवारिक हताशा एवं कुण्ठा से परेशान व्यक्ति। ★ अत्यधिक आर्थिक नुकसान से विचलित व्यक्ति।
★ मानहानि से आक्रान्त व्यक्ति इत्यादि । (2) मन्द मानसिक विकार - यह मानसिक-प्रबन्धन का द्वितीय स्तर है। इसमें व्यक्ति अपने ऋणात्मक आवेगों से आंशिक रूप से उभर जाता है, फिर भी ऋणात्मक आवेगों का प्रभाव उसे अंशतः दःखी तथा बोझिल बनाए रखता है। आमतौर पर समाज में इस दशा को सामान्य कहा जाता है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से यह दशा भी निम्न ही है, जैसे -
★ मनोरंजन के पश्चात् पुनः काम पर जाने वाला व्यक्ति। ★ कार्य में आंशिक सफलता एवं आंशिक असफलता पाने वाला व्यक्ति।
★ सामान्य उतार-चढ़ाव भरा जीवन जीने वाला व्यक्ति इत्यादि। (3) मन्दतर मानसिक विकार – यह मानसिक-प्रबन्धन का तृतीय स्तर है, जिसमें व्यक्ति के केवल धनात्मक (Positive) आवेग ही अभिव्यक्त होते हैं और ऋणात्मक आवेग उपशान्त हो जाते हैं। इससे व्यक्ति प्रसन्न रहता है, क्योंकि ऋणात्मक आवेग प्रकट रूप में उभरते नहीं हैं, जैसे -
★ सकारात्मक चिन्तन के द्वारा स्वयं को शान्त कर लेने वाला व्यक्ति। ★ खुश-मिजाज रहकर अपने दुःखों को भुला देने वाला व्यक्ति।
★ समस्या आने पर धैर्यपूर्वक उसका समाधान करने वाला व्यक्ति इत्यादि। (4) मन्दतम मानसिक विकार - यह मानसिक-प्रबन्धन का चतुर्थ स्तर है, जिसमें व्यक्ति आध्यात्मिक चिन्तन के द्वारा सही दृष्टिकोणपूर्वक प्रतिकूलताओं में भी साक्षी-भाव से जीने का अभ्यास करता है। उसके ऋणात्मक भाव का अभाव होते जाता है और अल्प मोह होने से वह आवश्यक कार्यों को प्रसन्नतापूर्वक करता हुआ अनावश्यक कर्तव्यों से स्वयं को मुक्त करता चला जाता है। वह वस्तुतः प्रतिकूलता को समस्या नहीं मानने का प्रयत्न करता रहता है, जैसे -
★ आत्मा और शरीर का भेद ज्ञान करने का अभ्यासी। ★ आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग) और उपाधि (बाह्य ओढ़े हुए रोग, जैसे – पद
आदि) में भी समाधि रखने का अभ्यासी। ★ अनासक्त भाव से जीवन-यापन करने का अभ्यासी इत्यादि।
415
अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
53
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org