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________________ ★ प्रतिशोध एवं वैर की वृत्ति ★ अतिमनोरंजन ★ आक्रामकता (Offensiveness) ★ वाद-विवाद एवं तर्क-कुतर्क * अत्यधिक सोचना-विचारना ★ लक्ष्यहीनता ★ आलस्य एवं अरुचि यदि इन अप्रबन्धित जीवन-व्यवहारों को उचित समय में नियंत्रित नहीं किया जाए, तो ये मनोरोगों, जैसे – अवसाद (Depression), अतिभय (Phobia) आदि का रूप भी धारण कर लेते हैं। इसीलिए जैनाचार्यों ने गृहस्थ को अपनी प्राथमिक भूमिका के निर्माण के लिए ‘मार्गानुसारी-गुणों' के परिपालन का निर्देश दिया है। 122 इन गुणों का धारक जीवन-प्रबन्धक सहजता से अपने आपको घातक मनोरोगों के कुच में फँसने से बचा सकता है। आवश्यक-नियुक्तिकार प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक को सावधान करते हुए कहते हैं – 'कषायों को अल्प मानकर विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए, क्योंकि इस कषाय की थोड़ी मात्रा ही बढ़कर बहुत हो जाती है। 123 (2) दुष्परिणामों की दूसरी अवस्था मानसिक विकारों के दुष्परिणामों की दूसरी अवस्था है - तनाव के परिणामों का स्पष्टरूप से अभिव्यक्त होना। तनावग्रस्त अप्रबन्धित जीवन-यापन करने पर व्यक्ति में दो प्रकार की विकृतियाँ आ जाती हैं - मानसिक एवं शारीरिक। मानसिक विकृति होने से व्यक्ति के मानसिक-कार्यों में एक तरह का विघटन (Disruption) या क्षुब्धता (Disturbance) आने लगती है, जो इस प्रकार है - (क) संज्ञानात्मक विकृति (Cognitive Impairment) 124 – यह विकृति व्यक्ति की ज्ञानात्मक-प्रक्रिया में होने वाले दोषों को इंगित करती है। ★ एकाग्रता की कमी ★ चिन्ता की अधिकता * प्रत्यक्षण (Perception) की कमी ★ ध्यान या अवधान (Awareness) की कमी ★ स्मृति की कमी ★ तार्किक एवं संगठित चिन्तन की कमी (ख) सांवेगिक विकृति (Emotional Disorder)125 – यह विकृति व्यक्ति की भावनाओं में उत्पन्न होने वाली विसंगतियों से सम्बन्धित है। 1) चिन्ता (Anxiety) – यह डर, आशंका एवं परेशानी आदि की प्रधानता वाली विकृति है। यदि चिन्ता सामान्य होती है, तो व्यक्ति किसी तरह तनाव उत्पन्न करने वाली परिस्थिति के साथ समायोजन कर लेता है, किन्तु यदि चिन्ता असामान्य (स्नायु विकृत/Neurotic) होती है, तो व्यक्ति इतना अधिक डर जाता है कि परिस्थिति से निपटने में वह स्वयं को असहाय महसूस करता है और उसकी सामना करने की क्षमता भी लगभग समाप्त हो जाती है। जहाँ फ्रायड ने इस चिन्ता को अचेतन (Unconscious Mind) का संघर्ष कहा है, वहीं जैनदर्शन में इसे अंतरंग संज्ञाओं (Instincts) की 34 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 396 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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