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________________ (10) घृणा अशुचिमय पदार्थों की उपस्थिति अथवा भोग के असह्य हो जाने पर जिस विशिष्ट अरुचि रूप मनोविकार की उत्पत्ति होती है, उसे घृणा कहते हैं । - ( 11 ) स्त्रीवेद पुरूष - सम्भोग की कामना ही स्त्रीवेद है। यह मनोविकार देर से प्रदीप्त होता है, लेकिन एक बार प्रदीप्त हो जाने पर काफी समय तक शान्त नहीं होता । (12) पुरुषवेद स्त्री - सम्भोग की कामना ही पुरूषवेद है। यह मनोविकार शीघ्र ही प्रदीप्त होकर शीघ्र ही शान्त भी हो जाता है। ( 13 ) नपुंसकवेद - स्त्री एवं पुरूष दोनों के सम्भोग की कामना ही नपुंसकवेद है, जो शीघ्र प्रदीप्त हो जाता है, किन्तु लम्बे समय तक शान्त नहीं होता । इस प्रकार, मनोविज्ञान जिन्हें संवेग (Emotions) कहता है, जैनदर्शन में उन्हें ही 'कषाय' कहा जाता है। इन कषायों एवं नोकषायों की उपस्थिति मन - प्रबन्धन के लिए बहुत बड़ी बाधा है, क्योंकि ये व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों को विचलित कर देती हैं। इससे उसकी शान्ति भंग हो जाती है और वह अनावश्यक चिन्ताओं एवं दुविधाओं के जंजाल में फँस जाता है। 32 ये कषाय एवं नोकषाय जब मन, वचन एवं काया की प्रवृत्तियों के रूप में परिणत होती हैं, तब एक विशिष्ट मनोभाव की उत्पत्ति होती है, जिसे जैनाचार्यों ने 'लेश्या' कहा है। यह लेश्या दो प्रकार की होती है शुभ एवं अशुभ। इनके कुल छः भेद होते हैं कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म एवं शुक्ल । इनका वर्णन निम्न तालिकानुसार समझना चाहिए 121 लेश्या के प्रकार लेश्या - — कृष्ण Jain Education International अशुभ नील कापोत पीत जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only शुभ पद्म शुक्ल 394 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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