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________________ जैनदर्शन में कषाय के मुख्यतया दो भेद बताए गए हैं104 – राग एवं द्वेष। अनुकूल , इष्ट एवं प्रिय पदार्थों के प्रति आकर्षण का भाव 'राग' कहलाता है, तो प्रतिकूल , अनिष्ट एवं अप्रिय पदार्थों के प्रति विकर्षण का भाव 'द्वेष' कहलाता है। राग और द्वेष भावों की तरतमता बनी ही रहती है, क्योंकि जो संयोग कभी इष्ट रूप लगता है, वही संयोग किसी अन्य समय अनिष्ट रूप प्रतीत होने लगता है। प्रशमरतिग्रन्थ में राग और द्वेष के आठ-आठ रूपों का चित्रण किया गया है105 - राग भाव द्वेष भाव इच्छा - इष्ट संयोग की चाहना दोष – चित्तवृत्ति का दूषित होना काम - प्रिय मिलन की विशेष भावना असूया - अन्य के गुणों को सहन न करना अभिलाषा - इच्छित संयोग की तीव्रतम कामना प्रचण्डन – तीव्र गुस्सा करना अभिनन्द - मनोकामना पूर्ण होने पर अतिहर्ष होना मत्सर - द्वेष के कारण यथार्थता को छिपाना स्नेह – व्यक्तिविशेष के प्रति अनुराग होना परिवाद - दूसरों के दोष देखना एवं बताना ममत्व - वस्तु या व्यक्ति के प्रति स्वामित्व होना रोष - अन्य के सौभाग्य, रूप एवं लोकप्रियता आदि को देखकर क्रोध करना गृद्धता - प्राप्त विषयों में सघन लिप्सा होना ईर्ष्या - किसी की सम्पत्ति आदि देखकर जलना एवं उसके नाश की दुर्भावना करना मूर्छा - मनपसन्द विषयों में गहन आसक्ति होना वैर - परस्पर मारपीट आदि से स्थायी क्रोध का उत्पन्न होना इन राग एवं द्वेष की मलिन वृत्तियों से आज समूचा संसार त्रस्त है। जैसे-जैसे भौतिक सुख-सुविधा एवं विलासिता के साधनों की उपलब्धता बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे इनके प्रति व्यक्ति की आसक्ति भी तीव्र होती जा रही है। इस बढ़ती हुई आसक्ति से राग और द्वेष भी अनियंत्रित होते जा रहे हैं, जिनसे व्यक्ति को अशान्ति एवं दःख के सिवाय कछ नहीं मिल रहा है। अतः मन का कुप्रबन्धन करके कष्ट पाने वालों के लिए जैनाचार्य कहते हैं कि राग-द्वेष दुःखों के मूल हैं,106 कोई दूसरा शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुँचाता, जितनी हानि ये अनियंत्रित राग और द्वेष पहुँचाते हैं। 107 अतः मन के अप्रबन्धन (असंयम) से निवृत्ति तथा सुप्रबन्धन (संयम) में प्रवृत्ति करनी चाहिए।108 इसीलिए कषाय की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए जैनाचार्यों ने कषायों का एक विशिष्ट प्रकार से वर्गीकरण भी किया है। इनके अनुसार, आवेगों की तीव्रता (Intensity) की दृष्टि से कषाय के दो भेद हैं - जो तीव्र आवेग हैं, उन्हें कषाय तथा जो मन्द आवेग हैं, उन्हें नोकषाय कहना चाहिए। वस्तुतः, ये नोकषाय तीव्र आवेगों (कषायों) की सहायक होती हैं। 109 जैनाचार्यों ने इन तीव्र आवेग रूप ‘कषाय' के चार भेद भी बताए हैं – क्रोध, मान, माया एवं लोभ। इनमें से प्रत्येक कषाय को इनकी तीव्रता के आधार पर पुनः चार प्रकार से विभक्त किया गया 391 अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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