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________________ (4) मन की विविध अवस्थाएँ यद्यपि मन की क्षमताएँ असीम हैं, तथापि सभी व्यक्तियों के मन की अवस्थाएँ सर्वदा एक-सी नहीं होती। भारतीय दर्शनों में मन की विविध अवस्थाओं का भी वर्णन किया गया है, जो प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक के लिए समझने योग्य है। (क) बौद्ध-दर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ 1) कामावचर-चित्त - यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें कामनाएँ एवं वासनाएँ अधिक होती हैं तथा वितर्क एवं विचारों की प्रधानता होती है, मन सांसारिक भोगों के पीछे भटकता रहता है। 2) रूपावचर-चित्त - इसमें एकाग्रता का प्रयत्न होता है, किन्तु वितर्क-विचार चलते रहते हैं। 3) अरूपावचर-चित्त - इसमें चित्त की वृत्तियाँ स्थिर तो होती हैं, किन्तु उनकी एकाग्रता विषयरहित नहीं होती। 4) लोकोत्तर-चित्त - इसमें चित्त विकारशून्य हो जाता है और साधक नियम से अर्हत् पद एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है। (ख) योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ17 1) मूढ़-चित्त – इसमें तमोगुण की मात्रा अधिक होने से निद्रा एवं आलस्य की प्रधानता होती है। 2) क्षिप्त-चित्त - इस अवस्था में चित्त की स्थिरता नहीं रहती और वह रजोगुण के प्रभाव से एक विषय से दूसरे विषय में भटकता रहता है। 3) विक्षिप्त-चित्त - इसमें आंशिक स्थिरता रहती है। चित्त थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है, पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर दौड़ जाता है। 4) एकाग्र-चित्त - यह मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है और योग की पहली सीढ़ी है। इसमें चित्त किसी विषय पर देर तक विचार या ध्यान करता रहता है। 5) निरुद्ध-चित्त - इस अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक , स्थिर एवं शान्त अवस्था में आ जाता है। इसी प्रकार, जैनदर्शन में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र नामक ग्रन्थ में मन की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है - विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और निरुद्ध , जिनका वर्णन आगे किया जाएगा। जीवन-प्रबन्धन के लिए इन सभी मानसिक अवस्थाओं का परिज्ञान अनिवार्य है। (5) आत्मा, शरीर और मन का पारस्परिक सम्बन्ध भारतीय दर्शन में इस सम्बन्ध को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है – “शरीर एक रथ के समान है, जिसमें इन्द्रिय रूपी अश्व जुते हुए हैं, उसमें आत्मा रूपी रथी, बुद्धि रूपी सारथी के द्वारा मन रूपी लगाम से इन इन्द्रियों को हाँक रहा है।” इससे स्पष्ट है कि इन्द्रियों कि तुलना में मन, बुद्धि जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 366 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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