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कृतज्ञता ज्ञापन
प्रथम वयसि पीतं तोयमल्पं स्मरन्तः, शिरसि निहितभारा नारिकेरा नराणाम्; उदकम मृतकल्पं दद्युराजीवितान्तं, न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।।
अर्थात् जिस प्रकार नारियल के छोटे-छोटे पौधे मनुष्यों द्वारा अल्प जल से सींचे जाकर विकसित होते हैं और उस थोड़े से जल को याद रखते हुए, वे जीवनपर्यन्त जल का भार अपने मस्तक पर उठाए रखकर, मनुष्यों को अमृत तुल्य स्वादिष्ट जल प्रदान करते रहते हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरूष भी उपकारी के उपकार को कभी नहीं भूलते।
प्रस्तुत शोध-प्रबंध के समापन की इस मंगलमय बेला में मेरा यह पुनीत कर्त्तव्य है कि मैं सज्जन पुरुषों के आदर्शों का अनुकरण करते हुए इस शोधकार्य की निर्विघ्न समाप्ति हेतु असीम कृपा, शुभ आशीष, पावन प्रेरणा, उत्कृष्ट प्रोत्साहन एवं अमूल्य सहयोग प्रदान करने वाले उपकारीजनों के प्रति अपनी भावपूर्ण कृतज्ञता ज्ञापित करूँ । वस्तुतः, उनके प्रति यह आभार - ज्ञापन अमूर्त श्रद्धा की मूर्त अभिव्यक्ति होगी, न कि एक शाब्दिक औपचारिकता ।
सर्वप्रथम मैं अंतस् की असीम आस्था के साथ परम उपकारी चौबीस तीर्थकर परमात्माओं, चारों दादा गुरूदेवों एवं पूर्वाचार्यों सहित समस्त सुदेव, सुगुरू एवं सुशास्त्र को सादर नमन करता हूँ, जिनकी दिव्यकृपा से मुझे सहज ही इस शोधकार्य का सृजन करने की अलौकिक प्रेरणा प्राप्त हुई ।
मैं अंतर्हृदय से भावाभिनत हूँ, परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमज्जिनकै लाशसागरसूरीश्वरजी म.सा., परम पूज्य उपाध्यायप्रवर श्रीमणिप्रभसागरजी म.सा., परम पूज्य गणिवर्य श्रीपूर्णानंदसागरजी म.सा., मधुरभाषी गुरूभगवन्त परम पूज्य श्रीपीयूषसागरजी म.सा. एवं स्वाध्यायरसिक गुरूभगवन्त परम पूज्य श्रीसम्यक्रत्नसागरजी म.सा. के प्रति, जिनके पावन आशीर्वाद से यह अध्ययन - यात्रा निरन्तर आगे बढ़ती गई और अंततः गंतव्य को प्राप्त हुई ।
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मैं सर्वस्व समर्पित हूँ, गुरूदेव अध्यात्मयोगी परम पूज्य श्रीमहेन्द्रसागरजी म.सा. के प्रति, जो मेरे जन्मदाता, संस्कारदाता, शिक्षादाता, दीक्षादाता, गुरु और आदर्श ही नहीं, अपितु जीवनसर्वस्व हैं । उनकी अविस्मरणीय प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन बचपन से ही मेरे अंतस् में प्राण - ऊर्जा बनकर प्रवाहित होते रहे हैं। इस शोधकार्य को भले ही शब्दों का चोला मैंने दिया हो, किन्तु इसकी आत्मा तो गुरूदेवश्री का गहन ज्ञान एवं विलक्षण भाव ही हैं। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि
कृतज्ञता - ज्ञापन
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