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________________ 6.6.2 वाणी के साथ विचारों का सम्यक् संयम भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट आराधना का त्रिकोण है – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । इस त्रिकोण में से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता। इनमें से एक को भी नहीं साधा, तो आराधना सफल नहीं हो सकती । यदि कोई वचन - संयम अथवा काय - संयम रखना चाहे, लेकिन मनः- संयम न रखे, तो उक्त दोनों प्रकार का संयम भी सम्भव नहीं होगा। 48 वाणी का आधार भाव है और भाव का आधार विचार है, अतः वाणी - प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को सन्तुलित और संयमित रखना अनिवार्य है। जब तक वह अपने आवेगों और आवेशों को नियन्त्रित नहीं करेगा, तब तक भीतर के नकारात्मक विचारों का प्रवाह उसकी वाचिक एवं कायिक अभिव्यक्तियों को सम्यक् दिशा में आरूढ़ नहीं होने देगा। अतः वाणी - प्रबन्धन के लिए विचार–प्रबन्धन (Thought Management) आवश्यक है। प्रज्ञापनासूत्र में इसीलिए क्रोध, मान, माया आदि नकारात्मक भावों से उत्प्रेरित या निःसृत भाषिक अभिव्यक्तियों का निषेध किया गया है। व्यवहारभाष्य में उचित ही कहा है पहले बुद्धि से परख कर, फिर बोलना चाहिए। अंधा व्यक्ति जिस प्रकार पथ-प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी भी बुद्धि अर्थात् सम्यक् विचारों की अपेक्षा रखती है 150 49 6.6.3 भाषा - समिति जीवन के अनेकानेक प्रसंगों में मात्र मौन रह जाने से ही समाधान नहीं निकलता, वहाँ पर बोलना भी आवश्यक हो जाता है, किन्तु जहाँ बोलना आवश्यक लगे, वहाँ भी किस प्रकार से अभिव्यक्ति करना, इस बात को समझना भी आवश्यक है। इसे जैनदर्शन में 'भाषा - समिति' के माध्यम से समझाया गया है। भाषा समिति का आशय हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र के द्वारा स्पष्ट होता है अर्थात् 'दोषों से रहित, सभी जीवों के लिए हितकारी, प्रियकारी और प्रमाणोपेत बोलना ही भाषा-समिति कहलाती है।' दूसरे शब्दों में, हित, मित, प्रिय एवं निरवद्य ( निर्दोष) वचनों का प्रयोग करना ही भाषा - समिति है । संक्षेप में भाषा - समिति का अर्थ है – 'सीमा या मर्यादा में बोलना' । अवद्यत्यागतः सार्वजनीनं मित-भाषणम् । प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते ।। इस प्रकार, आवश्यक बातें बोलना और अनावश्यक बातें नहीं बोलना ही भाषा समिति का उद्देश्य है। यह हमें अभाषक नहीं, अल्पभाषक बनने की प्रेरणा देती है। इससे ज्ञात होता है कि बोलने की भी अपनी सीमा होनी चाहिए, जिसका उल्लंघन करने से वाणी के दुष्परिणाम प्रकट होने लगते हैं। आगे, जैनआचारशास्त्रों के अनुसार हित - मित- प्रिय एवं निरवद्य वचनों की चर्चा की जा रही है । अध्याय 6: अभिव्यक्ति-प्रबन्धन 321 Jain Education International For Personal & Private Use Only 17 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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