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________________ (10) अन्यकारक-प्रबन्धन जैनाचार्यों ने स्वास्थ्य के लिए हानिकारक अन्य कारकों के निवारणार्थ भी उचित निर्देश दिए हैं, जैसे – व्यक्ति को अनावश्यक वाचाल नहीं होना, धन-सम्पत्ति और भोगसामग्री का मर्यादित सेवन करना, ज्ञानपूर्वक तप-साधना करना, समय-प्रबद्धता के साथ-साथ सहनशीलता का गुण विकसित करना, सामाजिक चेतना के साथ-साथ आध्यात्मिक चेतना का समन्वय करना इत्यादि। इससे जीवन-व्यवहार इतना प्रबन्धित हो सकता है कि अकारण रोगों को आमंत्रण न मिले। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि शरीर-प्रबन्धन की असली कसौटी तो यह है कि व्यक्ति शनैः-शनैः शरीर को इस प्रकार से ढाले कि विपरीत परिस्थितियों में भी शरीर के सभी अवयव एवं तन्त्र सन्तुलित रूप से कार्य कर सकें। जैनाचार्यों ने काय-क्लेश तप के माध्यम से इसी बात को इंगित किया है। दशवैकालिकसूत्र में साधक की साधना की पराकाष्ठा को दर्शाते हुए कहा गया है53 आयावयन्ति गिम्हेसु, हेमन्तेसु अवाउडा। वासासु पडिसलीणा, संजया सुसमाहिया ।। जो साधक सुसमाधिष्ठ हो जाते हैं, वे ग्रीष्मऋतु के प्रचण्ड ताप में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्तऋतु की कड़कड़ाती ठण्ड में खुले बदन हो जाते हैं और वर्षाऋतु के रमणीय वातावरण में इन्द्रियों को संयमित करते हुए प्रतिसंलीन तप करते हैं। इस अवस्था की ओर बढ़ने के लिए निम्नलिखित निर्देश उपयोगी हैं - ★ सुख-सुविधा एवं विलासिता के साधनों का अल्पातिअल्प प्रयोग करना। ★ व्यसनों का त्याग करना एवं किसी भी वस्तु का आदी नहीं होना। ★ आवश्यकताओं को शनैः-शनैः कम करते जाना। ★ विविध तपस्याओं का क्रमिक विकास करना। ★ दूसरों के दुःख को कम करने अथवा उनके सुख की वृद्धि के लिए अपने सुखों को तिलांजलि देने में सदैव तत्पर रहना। ★ अणुव्रतों का क्रमशः विकास करते हुए महाव्रतों तक पहुँचने का लक्ष्य रखना। ★ समाधिमरण के लिए मानसिक एवं शारीरिक तैयारी रखना। ★ अनुकूलताओं के बजाय प्रतिकूलताओं में जीने का अभ्यास करना। =====< >===== 293 अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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